जब श्वास मोड़ लेती है। उस समय तुम उससे नहीं जुड़े हो। और उस क्षण तुम आसानी से जान सकते हो कि मैं कौन हूं, यह होना क्या है, उस समय तुम जान सकते हो कि शरीर रुपी घर के भीतर कौन है, इस घर का स्वामी कौन है। मैं मात्रघर हूं या वहां कोई स्वामी भी है, मैं मात्रयंत्र रचना हूं, या उसके परे भी कुछ है। और शिव कहते है कि उस घुमाव बिंदु पर उपलब्ध हो। वे कहते है, उस मोड़ के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ और तुम आत्मोपलब्ध हो।
या जब कभी अंत: श्वास और बहिर्श्वास एक दूसरे मेंविलीन होती है, उस क्षण में ऊर्जारहित,ऊर्जापुरित केंद्र को स्पर्श करो।
हम केंद्र ? और परिधि मेंविभाजित है। शरीर परिधि है। हम शरीर को, परिधि को जानते है। लेकिन हम यह नहीं जानते कि कहां केंद्र है। जब बहिर्श्वास अंत:श्वास में विलीन होती है। जब वे एक हो जाती है। जब तुम यह नहीं कह सकते कि यह अंत:श्वास है कि बहिर्श्वास जब यह बताना कठिन हो कि श्वास भीतर जा रही है कि बाहर जा रही है। जब श्वास भीतर प्रवेश कि बाहर की तरफ मुड़ने लगती है, तभी विलय का क्षण है। तब श्वास जाती है और न भीतर आती है। श्वास गतिहीन है। जब वह बहार जाती है, गतिमान है, जब वह भीतर आती है, गतिमान है। और जब वह दोनों में कुछ भी नहीं करती है। तब वह
मौन है, अचल है। और तब तुम केंद्र के निकट हो। आनेवाली और जानेवाली श्वासों का यह विलय बिंदु तुम्हारा केंद्र है। इसे इस तरह देखो। जब श्वास भीतर जाती है तो कहां जाती है ? वह तुम्हारे केंद्र को जाती है। और जब वह बाहर जाती है तो कहां जाती है ? केंद्र से बाहर जाती है। इसी केंद्र को स्पर्श करना है। यही कारण है कि ताओ वादी संत और झेन संत कहते है कि सर तुम्हारा केंद्र नहीं है, नाभि तुम्हारा केंद्र है। श्वास नाभि केंद्र को जाती है,फिर वहां से लौटती है, फिर उसकी यात्रा करती है। जैसा मैंने कहा,श्वास तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच सेतु है। तुम शरीर को तो जानते हो,लेकिन यह नहीं जानते कि केंद्र कहां है। श्वास निरंतर केंद्र को जा रही है। और वहां से लौट रही है। लेकिन हम पर्याप्त श्वास नहीं लेते है। इस कारण से
साधारणत: वह केंद्र तक नहीं पहुंच पाती है
प्रेम में भी तुम्हारा रूप कुरूप हो जाता है। क्यों तुम्हारे प्रेम में भी द्वंद है, तुम कुछ बचाकर रख रहे हो, कुछ रोक रहे हो;
तुम बहुत कंजूसी से दे रहे हो। तुम अपने प्रेम में भी समग्र नहीं हो। तुम समग्रता से, पूरे-पूरे दे भी नहीं पाते।
"ओशो विज्ञान भैरव तंत्र"
When the breath takes a turn. At that time you are not connected to him. And at that moment you can easily know who I am, what is it to be, at that time you can know who the body is inside the home, who is the owner of this house. I am a mere householder or there is also a master, I am a mere instrument, or something beyond that. And Shiva says to be available at that inflection point. They say, become aware of that turn and you are self-realizing.
Or whenever the inhalation and exclusion merge into each other, touch the energetic, energetic center in that moment.
We center? And is divided into perimeter. The body is the circumference. We know the body, the circumference. But we do not know where the center is. When exertion dissolves in the inner breath. When they unite. When you cannot say that it is the inner breath that the exclusion is when it is difficult to tell that the breath is going in that it is going out. When the breath starts to turn inward, then there is a moment of merger. Then the breath goes out and does not come in. Breathing is sedentary. When she goes outside, she is moving, when she comes in, she is moving. And when she does nothing in both. Then that
Is silent, is immovable. And then you are close to the center. This merging point of incoming and outgoing breaths is your center. look at it this way. Where does the breath go when it goes in? She goes to your center. And where does she go when she goes out? She goes out of the center. This center has to be touched. This is why Tao Vaadi saints and Zen saints say that the head is not your center, the navel is your center. The breath goes to the navel center, then returns from there, then travels to it. As I said, breathing is the bridge between you and your body. You know the body, but do not know where the center is. The breathing is going continuously to the center. And returning from there. But we do not breathe enough. because of this reason
Usually she does not reach the center
Even in love, your form becomes ugly. Why there is a duality in your love, you are saving something, stopping something;
You are giving a lot of skimp. You are not even perfect in your love. You are not able to give wholeheartedly.
"Osho Vigyan Bhairava Tantra"
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