Snehdeep Osho Vision

 अगर मां सच में ही मां हो और आने वाले भविष्य में जो जन्म लेने वाला प्राण है उससे, उसके साथ पूरी पैसिविटी में हो, तो वह 

अपने बच्चे की जन्मकुंडली खुद ही लिखी जा सकती है। किसी पुरोहित,किसी पंडित को दिखाने की जरूरत नहीं है। और मां जिसकी जन्मकुंडली न लिख सके, उसकी कोई पुरोहित पंडित न लिख सकेगा। ‍क्योंकि इतना तादात्म्य, इतना एकात्म फिर कभी किसी दूसरे से नहीं होता है। पति से भी नहीं होता है इतना तादात्म्य पत्नी का, जितना अपने बेटे से होता है। बेटा उसका ही ‍एक्सटेंशन है, उसका ही फैलाव है।

लेकिन मां बनने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता; पिता बनने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। मां बनने के लिए कुछ भी नहीं

करना होता। मां बनने के लिए के केवल मौन प्रतीऺक्षा करनी होती है। इस मौन प्रतीऺक्षा में दो चीजों का जन्म होता है: एक तो बेटे का

जन्म होता है और एक मां का भी जन्म होता है।

इसलिए पूरब के मुल्क, जिन्होंने फिमेनिन मिस्ट्री को समझा, उन्होंने स्त्री को जो चरम आदर दिया है, वह मां का, पत्नी का नहीं। यह बहुत हैरानी की बात है।

मुझसे लोग पुछते थे कि आप संन्यासियों को स्वामी कहते हैं, लेकिन संन्यासिनियों को मां ‍क्यों कहते हैं, जब तक अभी उनका विवाह भी नहीं हुआ ? उनका बच्चा भी नहीं हुआ ?

असल में,मां का संबंध स्त्री की चरम गरिमा से है। वह अपनी चरम गरिमा पर सिर्फ मां के क्षण में होती है। उसका जो पीक एक्सपिरियंस है, वह पत्नी होना नहीं है, प्रेयसी होना नहीं है–प्रेयसी और पत्नी होना केवल चढ़ाई की शुरुआत है–उसका जो पीक एक्सपिरियंस है, जो शिखर-अनुभव है, वह उसका मां होना है।

इसलिए जिन समाजों में भी स्त्रियों ने तय कर लिया है कि पत्नी होना उनका शिखर है, उन समाजों में स्त्रियां बहुत दुखी हो जाएंगी; ‍क्योंकि वह उनका शिखर है नहीं। यद्यपि पुरुष राजी है कि वे पत्नी होने को ही अपना शिखर समझें। ‍क्योंकि पुरुष को पिता होने पर शिखर उपलब्ध हो जाता है। पिता होने पर उसे शिखर उपलब्ध नहीं होता। उसे प्रेमी होने पर शिखर उपलब्ध हो जाता है। लेकिन स्त्री को उपलब्ध नहीं होता।

स्त्री का यह जो मातृत्व का राज है, इसे लाओत्से कहता है, यह अंधेरे जैसा है।


"ओशो ताओ उपनिषद"


If the mother is really the mother and she is in full pacification with the life that is to be born in the future, then she

 The horoscope of your child can be written by itself.  There is no need to show any priest, no priest.  And no priest can write a priest whose mother cannot write a horoscope.  Because so much identification, so much unity never happens to anyone else.  Not even a husband is as much identified with a wife as he is with his son.  The son is his extension, his only extension.

 But to become a mother, nothing has to be done;  It takes a lot to become a father.  Nothing to be a mother

 Would have to do.  To become a mother one only has to wait silently.  In this silent wait two things are born: one is the son

 A birth takes place and a mother is also born.

 Therefore, the country of the East, who understood the Feminine Mystery, has given the extreme respect to the woman, not the mother, but the wife.  It is very surprising.

 People used to ask me that you call ascetics as masters, but why are ascetics called mothers, until they are not even married?  They did not even have a child?

 Basically, the mother is related to the extreme dignity of the woman.  She is at her peak dignity just in a mother's moment.  Her peak experience is not to be a wife, not to be a lover - to be a lover and a wife is only the beginning of the ascent - her peak experience, the peak experience, is to be her mother.

 Therefore, in those societies in which women have decided that having a wife is their peak, women will become very unhappy in those societies;  Because it is not their peak.  Although men agree that they should consider wife to be their pinnacle.  Because the man attains the peak when he is a father.  She does not have a peak when she is a father.  Shikhar attains peak when he is a lover.  But the woman is not available.

 This woman's secret of motherhood, it is called Laotse, it is like darkness.


 "Osho Tao Upanishad"



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