लाओत्से कहता है, प्रकृति निर्द्वंद है। लाओत्से यह कहता है कि वहां एक-रस नियम है। उस एक-रस नियम में कोई फर्क नहीं पड़
सकता। न तो वह दया करेगा, और न वह कठोर होगा। न तो वह बुरे के लिए गर्दन काट देगा और न भले के लिए सिंहासन का
इंतजाम करेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जो बी हम करते हैं और जो भी हम पाते हैं, वह अपना ही किया हुआ और अपना ही पाया
हुआ है। उसमें प्रकृत कोई हाथ नहीं बंटाती।
लेकिन प्रकृति निरपेक्ष है। नहीं, प्रकृति जरा भी उत्सुक नहीं है। होनी भी नहीं चाहिए ; क्योंकि अगर प्रकृति इसमें उत्सुक हो, तो
अव्यवस्था हो जाए ।
लाओत्से कहता है, यही प्रकृति की व्यवस्था है कि वह आप में बिलकुल उत्सुक नहीं है। आप में उत्सुकता हो, तो आप प्रकृति के
नियमों का दरुपयोग शुरू कर दें। आप में उत्सुकता हो, तो आप प्रकृति को आदमी के हाथ के भीतर रख दें।
लेकिन प्रकृति आप में उत्सुक नहीं है; इसलर सदा आपके हाथ के बाहर है। और कभी अगर आपकी प्रार्थना पूरी हो जाती हैं, तो
इसलिए नहीं कि किसी ने उन्हें सुना, बल्कि इसलिए की आपने उन प्रार्थनाओं को पूरा करने के लिए कुछ और भी किया। अगर
आपकी प्रार्थनाएँ पूरी नहीं होतीं, तो इसलिए नहीं कि परमात्मा नाराज है, बल्कि इसलिए कि आप बिलकुल कोरी प्रार्थनाएं कर रहे हैं
और उनके पीछे कुछ भी नहीं है। अगर प्रार्थनाओं से बल भी आता है, तो आप में ही आता है और आपका ही आता है। अगर मंदिर के सामने हाथ जोड़ कर आपने प्रार्थना की है और लौटते वक्त पाया है कि प्राणों में ताकत ज्यादा है, संकल्प ज्यादा सजग है, पैर ज्यादा मजबूत हैं, तो यह कहीं और से आ गई ताकत नहीं है; यह मंदिर के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने के खयाल का परिणाम है। यह आपका अपना है। और ऐसे मंदिर के बाहर भी हो सकता है, जहां मंदिर में कुछ भी न हो। और इसलिए कई बार ऐसा हो जाता है कि पत्थर भी आपकी प्रार्थनाओं को पूरा करने में सफल हो जाते हैं। और कई बार ऐसा हो जाता है कि बुद्ध और महावीर और लाओत्से की हैसियत का आदमी सामने खड़े हो और आपकी प्रार्थना अधूरी की अधूरी रह जाती है। नहीं, दूसरी तरफ बात नहीं है, आपकी ही तरफ बात है। इसको साफ करने के लिए लाओत्से कहता है, प्रकृति सदय नहीं है। एक लिहाज से यह बहुत कठोर है बात, क्योंकि हम बेसहारा हो जाते हैं। हमारे हाथ की सारी की सारी क्षमता टूट जाती है, अगर कोई कह दे कि प्रकृति सदय नहीं है। अगर मैं गङ्ढे में गिर रहा होऊंगा, तो प्रकृति से कोई आवाज न आएगी कि रुक जाओ। यह कठोर लगती है बात और मन को धक्का भी लगता है। इस धक्के की वजह से ही लाओत्से बहुत अधिक लोगों की समझ के बाहर पड़ा। क्योंकि उसने आपकी किसी कमजोरी को पूरा करने का कोई वचन नहीं दिया है। लाओत्से के पीछे धर्म बनाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि धर्म तो तभी बनता है, जब आपकी कमजोरी का शोषणर किया जा सके। जो आप चाहते हैं वही कहा जाए की परमात्मा भी चाहता है, जो आप पाना चाहते हैं वही देने को परमात्मा भी राजी हो, तो धर्म निर्मित होते हैं।
"ओशो ताओ उपनिषद"
Laotse says, nature is free. Lao Tzu says that there is a one-law rule. That one-rule rule doesn't matter can. Neither will he have mercy, nor will he be harsh. Neither will he cut the neck for evil nor for the throne of good
Will make arrangements This means that what we do and what we get, is done and found
Has happened. Prakrit does not share any hand in it.
But nature is absolute. No, nature is not keen at all. It shouldn't even happen; Because if nature is keen on it, then Let it be done.
Lao Tzu says that this is the arrangement of nature that he is not keen in you at all. If you are curious, then you Start abusing the rules. If you are curious, then you put nature within man's hand.
But nature is not keen in you; Isler is always out of your hands. And sometimes if your prayers are fulfilled, then Not because someone heard them, but because you did something else to fulfill those prayers. if
Your prayers are not fulfilled, not because God is angry, but because you are doing utter prayers And there is nothing behind them. If the strength also comes from the prayers, then it comes in you and only you. If you have prayed with folded hands in front of the temple and while returning, you have found that the life is more powerful, the resolution is more alert, the legs are stronger, then it is not the strength coming from elsewhere; This is the result of the thought of standing in front of the temple and praying. It is your own And such can happen outside the temple, where there is nothing in the temple. And so many times it happens that the stones also succeed in fulfilling your prayers. And many times it happens that Buddha and Mahavira and Laotse's man standing in front of you and your prayers remain incomplete. No, it is not the other side, it is on your side. To make it clear, Lao Tzu says, nature is not good. In a sense it is very harsh thing, because we are destitute. The entire capacity of our hands is broken, if anyone says that nature is not good. If I am falling into the pit, there will be no sound from nature to stop. It seems harsh and it also hurts the mind. It was because of this shock that Laotse fell out of the grasp of a lot of people. Because he has not promised to fulfill any of your weaknesses. It is very difficult to form religion behind Laotse. Because religion is formed only when your weakness can be exploited. What you want is said that God also wants, whatever God wants to get, God is ready to give it, then religions are created.
"Osho Tao Upanishad"
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