Snehdeep Osho Vision

गरीबी और समाजवाद ; प्रवचन की अंतिम किश्त
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समृद्धि पैदा होगी भौतिकवाद के सहज स्वीकार से। यह देश जब तक अपने थोथे अध्यात्मवाद से भरा है--थोथा अध्यात्मवाद मैं उसे कहता हूं जो भौतिकवाद का विरोधी है। ठीक, राइट स्प्रिचुअलिज्म उसे कहता हूं जो भौतिकवाद को समाहित कर लेता है। जो कहता है--आए, भौतिक भी हममें समा जाए। भौतिक हमारा कुछ न बिगाड़ पाएगा। लेकिन यह हमारी अब तक की वृत्ति रही है।

हम समृद्ध कैसे हों? हमने दरिद्रता के सब उपाय किए और हम सफल हो गए। हमने समृद्धि का कोई उपाय ही नहीं किया क्योंकि हमने मूल आधार न रखा। एक बात--भौतिकवाद का सम्यक स्वीकार चाहिए। आने वाले भारत की नई पीढ़ी को भौतिकवाद को आत्मसात करना होगा--यह कह कर कि पश्चिम भौतिकवादी है, इनकार करने से नहीं चलेगा, क्योंकि जो पश्चिम भौतिकवादी है उसी के सामने हाथ फैलाने पड़ते हैं, भीख मांगनी पड़ती है। और यह बहुत अशोभन है कि अध्यात्मवादी भौतिकवादियों के सामने भीख मांगे। लेकिन हम बीस साल से भीख मांग रहे हैं। और आगे भी, अभी कोई उपाय नहीं दिखता कि भीख मांगना हमें बंद करने की स्थिति में लाए। भीख हमें मांगनी ही पड़ेगी, क्योंकि हम अध्यात्मवादी हैं, हम शुद्ध आत्मा में जीना चाहते हैं। तो कौन गेहूं पैदा करे, कौन मशीनें लाए, कौन टेक्नालॉजी पैदा करे? नहीं, वह हमसे नहीं होगा। वह पश्चिम करे, और हम भीख मांगें--यह हमारी पुरानी तरकीब है। पाप कोई और करे, पुण्य हम करें।

एक आदमी संन्यासी हो जाता है। वह कहता है, हम दुकान नहीं करेंगे। दुकान में पाप है। हम खेती नहीं करेंगे। खेती में पाप है। हम पैसा नहीं कमाएंगे। हम पैसा छुएंगे नहीं, छूने में पाप है। अभी दो संन्यासी मुझे मिलने आए। उनसे मैंने कहा कि आप कल सुबह आ जाएं। उन्होंने कहाः बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि हम पैसा नहीं छूते। कोई आदमी हमारे साथ रहता है जो पैसा खीसे में रखता है, वह पैसा देता है। तो हम उस आदमी को पूछ लें, अगर वह कल सुबह आ सकता हो तो हम आ सकते हैं। मैंने कहा, बड़ा मुश्किल है। मैंने कहाः आप पैसा क्यों नहीं छूते हैं? उन्होंने कहाः पैसा छूना पाप है। और मैंने कहाः वह आदमी आपके लिए पैसा छू रहा है, तो वह किसके लिए पाप कर रहा है? नरक वह जाएगा, आप स्वर्ग चले जाएंगे?

मैं दुकान करूं तो पाप है, मैं दुकान न करूं, और दो दुकान करने वाले मुझे जिंदगी भर पालें तो पुण्य है! पाप कोई और करे, पुण्य हम करेंगे, यह हमारी पुरानी प्रवृत्ति है। पश्चिम भौतिकवादी है, पेट हमारा खाली है, रोटी पश्चिम दे। पाप अगर होगा, नरक अगर जाएंगे तो पश्चिम के लोग जाएंगे, यह बड़े मजे की बात है। अमरीका का किसान नरक जाएगा, क्योंकि भौतिकवादी है और हम स्वर्ग जाएंगे क्योंकि हम अध्यात्मवादी हैं। और अमरीका का किसान हमारे लिए मेहनत करेगा। चार किसान अमरीका में मेहनत कर रहे हैं, उनमें एक किसान की मेहनत हमें मिल रही है। आज अमरीका का एक चौथाई भोजन हम ले रहे हैं, लेकिन बेशर्मी के साथ। यह हमें खुद पैदा करना पड़ेगा। लेकिन हम कैसे पैदा करेंगे? अगर भौतिकवाद की स्वीकृति नहीं है तो यह पैदा नहीं होगा।

इस देश में भौतिकवाद के अस्वीकार के कारण विज्ञान भी पैदा नहीं हो पाया। हमारी जलती हुई समस्या यह है कि हम कैसे तीव्रता से विज्ञान पैदा करें, कैसे हम साइंटिफिक हो जाएं? लेकिन हमारा सब सोचना गैर-साइंटिफिक है। हमारे चिंतन के सब आधार गैर-साइंटिफिक हैं। अगर हम सोचेंगे भी तो हम हमेशा गैर-साइंटिफिक ढंग से ही सोचेंगे। हमारे सोचने की पूरी धारा, पूरा ढांचा ऐसा है।

अब जनसंख्या बढ़ती है, वह हमारा सवाल है--आज मुल्क के सामने। हमारे विचारशील लोग, तो उनसे पूछिए जाकर कि जनसंख्या बढ़ती है तो क्या करें? वे कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो। गांधीजी कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो। विनोबाजी कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो, जनसंख्या नहीं बढ़ेगी। ब्रह्मचर्य धारण करो! और पांच हजार साल का अनुभव यह कहता है कि कितने लोगों ने ब्रह्मचर्य धारण किया? 

लेकिन अनुभव से हम कुछ सीखते नहीं। और कितने लोग ब्रह्मचर्य धारण कर लेंगे? वह भी हम नहीं सोचते। और खतरा तो यह है कि अगर यह चालीस करोड़ का मुल्क ( प्रवचन समयानुसार ) एकदम से ब्रह्मचर्य धारण कर ले दो-एक साल, तो हम एक-दूसरे की गर्दन घोंट डालें--इतना हमारे भीतर काम का वेग इकट्ठा हो जाए कि जिंदा रहना मुश्किल हो जाए, पूरा मुल्क पागल हो जाए वह बच्चे पैदा करने से भी महंगा पड़े--लेकिन उसका हमें कोई खयाल नहीं है!

वैज्ञानिक साधन से हमारा विरोध है। तो बर्थ-कंट्रोल से हमारा विरोध है ,क्योंकि वह वैज्ञानिक साधन है, सोचने का वह वैज्ञानिक ढंग है! लेकिन उससे हमारा विरोध है। हम किसी भी चीज के संबंध में वैज्ञानिक बुद्धि से नहीं सोच पाते। वैज्ञानिक बुद्धि हमारे पास नहीं है। बुद्धि वैज्ञानिक हो सकती है आज भी, उसके आधार बदलने होंगे। हमारे सोचने के आधार क्या हैं? हमारा सोचने का आधार सदा शास्त्र है।

जब भी हम सोचते हैं तो हम पहले यह पूछते हैं, गीता क्या कहती है? अब गीता को कब तक परेशान करेंगे, और कृष्ण ने आपका क्या बिगाड़ा है? पैदा हो गए आपके मुल्क में तो कोई कसूर हो गया, अपराध हो गया?
उनका पीछा कब तक करेंगे? लेकिन पहले हम गीता खोलेंगे। समस्या आज की, शास्त्र कल का; उनका मेल क्या है? लेकिन पहले शास्त्र में खोजेंगे कि शास्त्रसम्मत कोई रास्ता मिल जाए। शास्त्र में कुछ रास्ते हैं, वे हम खोज लेंगे। वे रास्ते लागू नहीं होंगे, क्योंकि यह बुद्धि जो शास्त्र में खोजती है; अवैज्ञानिक है।

वैज्ञानिक बुद्धि प्रयोग में खोजती है, अवैज्ञानिक बुद्धि शास्त्र में खोजती है। प्रयोग भविष्यगामी है और शास्त्र अतीत से बंधे हैं। प्रयोग सदा भविष्य में ले जाता है, एक्सपेरीमेंट हमेशा भविष्य में ले जाता है और शास्त्र सदा अतीत में ले जाते हैं। जाना है भविष्य में और पकड़े हैं शास्त्र को, तो मुसीबत खड़ी हो गई है। जाना है पूरब और बैलगाड़ी में बैल जुते हैं पश्चिम की तरफ। बैलगाड़ी के बैल चलते हैं तो और पश्चिम में चले जाते हैं और जाना है पूरब। बहुत कठिनाई हो गई है, बहुत मुश्किल हो गई है।

शास्त्र की तरफ देखना बंद करना पड़ेगा। वैज्ञानिक बुद्धि शास्त्र की तरफ नहीं देखती। बल्कि ध्यान रहे, जब से कुछ लोगों ने शास्त्र की तरफ देखना बंद किया, तभी से विज्ञान पैदा हुआ। नहीं तो विज्ञान कभी पैदा न होता। गैलीलियो को सवाल उठा कि जमीन चपटी है या गोल? बाइबिल खोल कर देख सकता था। उसमें लिखा है जमीन चपटी है, बात खत्म हो जाती। उसने कहा, बाइबिल की हम फिकर नहीं करते। हम तो खोजने जाएंगे कि जमीन कैसी है! खोजने गया तो पाया कि बाइबिल गलत है।

हिंदुस्तान अभी भी अपने शास्त्रों के विपरीत नहीं है। और जब तक हिंदुस्तान की प्रतिभा शास्त्र के विपरीत नहीं है तब तक गैलीलियो पैदा नहीं होगा, कोपरनिकस पैदा नहीं होगा, डार्विन पैदा नहीं होगा, मार्क्स पैदा नहीं होगा, फ्रायड पैदा नहीं होगा--वैज्ञानिक बुद्धि पैदा नहीं होगी। वह नहीं हो सकती है। हम जब भी कुछ खोजते हैं, फौरन शास्त्र में जाकर संदर्भ देख लेते हैं। बात खत्म हो जाती है। प्रयोग में नहीं उतरते, जिंदगी देखने नहीं जाते। और कई दफे ऐसा हो जाता है--इतना कठिन है अवैज्ञानिक मन!

मैंने सुना है, अरस्तू तो बड़ा विचारक था। उसने लिखा है कि औरतों के दांत आदमियों से कम होते हैं। तो उसने अपनी किताब में भी लिख दिया कि स्त्रियों के दांत आदमी से कम होते हैं। अब दो औरतों वाले आदमी को कितनी देर लगती थी? एक मिसेज को कहता, जरा मुंह खोलो, दांत गिन लेता। लेकिन उसने नहीं गिने। पुरानी किताब में लिखा है कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं और सब किताबें पुरुषों ने लिखी हैं तो स्त्रियों में बराबर दांत होते हैं, यह भी कैसे मान सकते? स्त्रियों में कमी तो होनी ही चाहिए सब तरह की। वह तो पहले पक्का सिद्धांत था।

अब यह बड़े मजे की बात है कि यह किसने किताब लिखी। और अरस्तू ने भी अपनी किताब में लिख दिया कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं--गिना नहीं। अरस्तू के मरने के एक हजार साल तक सारा यूरोप यह मानता रहा कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। अब मजा है कि पुरुषों को छोड़ दो, पक्षपात है उनका। स्त्रियां क्या करती रहीं, अपने दांत नहीं गिन सकती थीं? लेकिन अवैज्ञानिक बुद्धि शास्त्र में जाती है। उन्होंने भी किताब खोल कर पढ़ा होगा, स्त्रियों के दांत कम हैं तो बात खत्म हो गई। आश्चर्यजनक है, लेकिन सत्य है, हजारों मान्यताएं चल रही हैं क्योंकि शास्त्र में लिखी हैं।
देश को एक वैज्ञानिक बुद्धि चाहिए तो हम अपने जिंदगी के सवालों को हल कर सकेंगे। 

हमारी अवैज्ञानिक प्रवृत्ति ने बहुत कुछ समस्याएं खड़ी कर दी हैं, वे चारों तरफ खड़ी हैं। वे हमें घेरे हुए हैं। उनको काटना मुश्किल होगा क्योंकि विज्ञान पैदा न हो तो टेक्नालॉजी पैदा नहीं होगी।

हां, हम ट्रांसप्लांट कर सकते हैं। पश्चिम से हम उधार टेक्नालॉजी ला सकते हैं। लेकिन उधार बुद्धि कहां से लाइएगा? और बैलगाड़ी में बैठने वाले आदमी के पास एक तरह की बुद्धि होती है--बैलगाड़ी की। हवाई जहाज मिल सकता है उधार--बैलगाड़ी में बैठने वाले आदमी को हवाई जहाज में बिठाया जा सकता है, पायलट बनाया जा सकता है। लेकिन बैलगाड़ी वाले की बुद्धि एकदम हवाई जहाज के पायलट की बुद्धि नहीं हो जाती। और बैलगाड़ी वाली बुद्धि के हाथ में हवाई जहाज खतरनाक सिद्ध होगा। नुकसान में ले जाएगा, फायदे में नहीं ले जा सकता। मुश्किल में डाल देगा।

नहीं, पहले इस देश की बुद्धि बदलनी चाहिए। क्या आपको पता है कि तीन सौ साल में पश्चिम में जो विज्ञान का विकास हुआ, उसके जन्म का कारण संदेह की प्रवृत्ति है। संदेह, डाउट! तीन सौ साल में पश्चिम के युवकों ने संदेह किया पूर्वजों पर, पुरखों पर, पिताओं पर, पिछली सदियों पर, पिछले शास्त्रों पर, जीसस पर, मोहम्मद पर, सब पर संदेह किया--मूसा पर, जरथुस्त्र पर। उस संदेह का परिणाम हुआ विज्ञान। आज भी हम संदेह करने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं। और अगर हम संदेह नहीं कर पाते तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकता। वैज्ञानिक बुद्धि पैदा नहीं हो सकती।

अवैज्ञानिक बुद्धि का आधार है विश्वास, बिलीफ और वैज्ञानिक बुद्धि का आधार है संदेह, डाउट। क्या आज भी हम संदेह करने की स्थिति में हैं? नहीं, आज भी शिक्षक सिखा रहा है, विश्वास करो। पिता सिखा रहा है, विश्वास करो। बड़ा भाई छोटे भाई को सिखा रहा है, विश्वास करो। सब तरफ विश्वास सिखाया जा रहा है। विश्वास अब आगे हमें कठिनाई में डाल दे सकता है। संदेह सिखाने की जरूरत है। और यह बड़े मजे की बात है कि जब कोई आदमी ठीक से संदेह करने लगता है तो वह उन विश्वासों पर पहुंच जाता है जो असंदिग्ध हैं। जब कोई आदमी ठीक से संदेह करता है तो वह उन विश्वासों पर पहुंच जाता है जो असंदिग्ध हैं। और जब कोई आदमी पहले से विश्वास कर लेता है, तो कभी असंदिग्ध विश्वासों पर नहीं पहुंच पाता। संदेह की यात्रा सत्य तक ले जाती है, विश्वास की यात्रा कभी भी नहीं।

लेकिन हम विश्वास से भरे हुए लोग हैं। हम सब तरफ से विश्वास पर जी रहे हैं। यह तोड़ना पड़ेगा। यह मिटाना पड़ेगा। तो आज कोई कारण नहीं है कि जो पश्चिम में संभव हुई है समृद्धि, वह यहां संभव क्यों न हो जाए? बेहतर जमीन है, बेहतर आकाश है, बेहतर मौसम है, ज्यादा उपलब्ध सूरज है, पहाड़ हैं, संपत्ति है, जमीन है, सब है। लेकिन वह बुद्धि नहीं है जो उसमें से कीमिया को निकाल ले और संपत्ति को पैदा कर दे। सिर्फ बुद्धि की कमी बाधा डाल रही है, और कोई बाधा नहीं है। और बुद्धि हो तो संपत्ति पैदा होगी, लेकिन हमको उसकी भी फिकर नहीं है।

हम कहते हैं, जो सम्पत्ति है उसे बांटिए, सब मामला हल हो जाएगा। तो हमारा सारा बुद्धिमान वर्ग एक नारे में लगा है कि बस संपत्ति को बांटो। मैं नहीं मानता कि वह बहुत बुद्धिमान वर्ग है जो इस नारे में लगा है। संपत्ति नहीं है, बांटिएगा क्या? पहले संपत्ति पैदा करो, पहले संपत्ति को बरसाओ, पहले संपत्ति से देश को भर दोे। फिर बांटना तो बहुत आसान काम है।
लेकिन अगर आज हमने जबरदस्ती संपत्ति बांट भी ली--बांट लेंगे, ऐसा लगता है--ऐसा लगता है कि बांट लेंगे क्योंकि रिक्शा वाला बहुत प्रसन्न हो गया है। इंदिरा जी के आस-पास घेरा लगा कर नारे लगा रहा है। वह कह रहा है जिंदाबाद। हां, लगता है कि हम संपत्ति बांट लेंगे। संपत्ति नहीं है, उसको बांट लेंगे। वह बंट जाएगी। और यह देश और गरीब हो जाएगा। 

संपत्ति नहीं बांटनी है, विश्वास की हत्या करनी है और संदेह को जन्म देना है। धर्म के अंधेपन से मुक्त होना है और वैज्ञानिक की आंख पैदा करनी है। गरीबी का पुराना मोह छोड़ना है और संपत्ति को पैदा करने का स्वस्थ आग्रह पैदा करना है। दीन-हीन होने की पुरानी व्याख्याएं जला डालनी हैं और समृद्ध होने के नये आधार रखने हैं। भौतिकवाद को स्वीकार करना है ताकि अध्यात्म का कलश, स्वर्ण-कलश उस पर चढ़ाया जा सके।

ये काम हैं जो देश के बुद्धिमान को करने हैं, लेकिन देश का बुद्धिमान नारेबाजी में है। और नारेबाजी के साथ भीड़ भी खड़ी हो जाती है। भीड़ बहुत कम समझदार है। भीड़ को खड़ा कर लेना बहुत कठिन नहीं है। अगर भीड़ बहुत समझदार होती तो उसने अपने मसले कभी के हल कर लिए होते, लेकिन भीड़ बहुत समझदार नहीं है। और इस देश में भीड़ को इकट्ठा अगर करना हो तो नासमझी की बातें करना जरूरी हैं। नासमझी हो तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। 

इस देश में नेता होना हो तो थोड़ा मीडियाकर बुद्धि का होना बहुत जरूरी है। बहुत प्रतिभावान आदमी इस देश में नेता नहीं हो सकता। क्योंकि बहुत प्रतिभावान आदमी भीड़ की बातों पर राजी नहीं होगा। अक्सर प्रतिभावान आदमी भीड़ की बातों का विरोध करेगा।
क्योंकि भीड़ अपनी भूलों से परेशान है। उसको उसकी भूलों को स्वीकार करना खतरनाक है। लेकिन नेता होने का सूत्र है कि जो भीड़ कहती है वही तुम भी कहो। नेता होने की कीमिया है, केमिस्ट्री है कि हमेशा भीड़ के पीछे चलो। नेता दिखता आगे है, होता हमेशा पीछे है। नेता अपने अनुयायी का भी अनुयायी होता है। अनुयायी का भी अनुयायी जो हो सकता है वही नेता हो सकता है। वह अनुयायी के पीछे चलता है। वह देखता है, अनुयायी क्या मांगता है, वही कहो, अनुयायी क्या चाहता है, वही कहो। नारे पैदा हो गए हैं। 

देश बीस साल से नारों के आस-पास जी रहा है। स्लोगनबाजी है, उसमें कुछ बहुत सोच-विचार नहीं है। उसमें कोई बहुत गहरी खोज नहीं है। देश के महारोग के भीतर उतरने की कोई निष्ठावान चेष्टा नहीं है, सिर्फ नारेबाजी है।
जनता को क्या नारा ठीक लगता है, वह नारा लगाओ। और जनता ही अगर समझदार होती तो पांच हजार साल की दीनता और दरिद्रता हमने न झेली होती। अब फिर जनता प्रमुख हो गई है। अब फिर जनता जिसको साथ देगी वही इस मुल्क को आगे चलाएगा। जनता के मानस में नये विचार डालने पड़ेंगे। जनता का मानस बदलना पड़ेगा तो शायद गलत नेता उसे गलत मार्गदर्शन न दे सकें। 

अभी इस देश को पचास साल एक परिपक्व पूंजीवाद की जरूरत है, एक मैच्योर कैपटेलिज्म की जरूरत है।
तो मैं समाजवादी हूं, जब ऐसी बात कहता हूं तो कठिन मालूम पड़ती है। समाजवादी मित्र मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आप क्या कहते हैं? मैं यह कहता हूं कि पूंजीवाद आ जाए तो समाजवाद आ सके। पूंजीवाद ही नहीं आए तो समाजवाद नहीं आ सकता। और मैं यह कहना चाहता हूं कि रूस का प्रयोग बहुत गहरे अर्थों में असफल हुआ है और परेशानी हुई है। चीन का प्रयोग असफल हो रहा है और भीतर बहुत गहरी परेशानी है।
चीन ने पहली दफा तिब्बत पर हमला किया तो मेरे एक मित्र मानसरोवर की यात्रा पर गए थे। वे लौटते थे तो एक तिब्बती गांव में उनको पकड़ लिया गया। जिन चीन के सैनिकों ने पकड़ा, वे मुझसे कहने लगे, हम बहुत हैरान हुए। वे चीन के सैनिक इनका एक-एक सामान देखने लगे। स्टोव था इनके पास। वे स्टोव नहीं समझ सके कि यह स्टोव क्या है। तो उन्होंने कहा कि इसे जला कर बताओ। चला कर बताओ कि यह है क्या, यह चीज क्या है? वे समझे कि कोई खतरनाक यंत्र है। स्टोव, साधारण, चाय बनाने का स्टोव--चीन का सैनिक नहीं समझ सका कि यह क्या है! गांव के किसान हैं, जबरदस्ती भर्ती कर लिए गए हैं, जबरदस्ती बंदूक पकड़ा दी गई है। स्टोव को चीन के सैनिक नहीं समझ पाए। वे मेरे मित्र कहने लगे, हम बहुत हैरान हुए। हमने स्टोव जला कर बताया तो जो आठ-दस सैनिक थे वे एकदम भाग कर दरवाजे के बाहर खड़े हो गए क्योंकि आग भभकी। उन्होंने समझा कि पता नहीं क्या विस्फोट हो जाए। क्या खतरा हो जाए।

चीन जबरदस्ती समाजवादी होने की कोशिश कर रहा है इसलिए भारी रक्तपात हो रहा है। पांच महीने के बच्चे को मां से निकालेंगे तो रक्तपात होगा। और रक्तपात के बाद भी समाधान नहीं है। समाधान इसलिए नहीं है कि समृद्धि है ही नहीं, बांटिएगा क्या? तो चीन भीतर से गरीब और परेशान है। मुश्किल में है। उस मुश्किल को हल करता है आस-पास हमले करके। आस-पास हमले करने से आशा बंधती है चीन के आदमी को कि शायद कहीं से संपत्ति लूट लेंगे। कहीं कुछ उपद्रव हो जाए। लेकिन कहीं से संपत्ति लूटी नहीं जा सकती। संपत्ति पैदा करनी पड़ती है।

रूस चालीस साल के अनुभव के बाद नये अनुभव ले रहा है। अभी उन्नीस सौ साठ में पहली दफा रूस में व्यक्तिगत कार रखने की छूट दी गई है। हालांकि हैं नहीं अभी कि व्यक्तिगत कारें सारे लोग रख सकें । सौ-पचास लोग बड़े नगरों में रख सकते हैं। लेकिन व्यक्तिगत कार रखने की छूट उन्नीस सौ साठ में दी और यह अनुभव किया कि अब व्यक्तिगत छूट थोड़ी दो। क्योंकि लोगों का इनसेंटिव मर गया, लोगों की प्रेरणा मर गई। कोई काम नहीं करना चाहता। रूस के सामने बड़े से बड़ा सवाल है, रूस का युवक काम नहीं करना चाहता क्योंकि काम करने का कोई प्रयोजन नहीं है।

अमरीका, मैं मानता हूं, पचास वर्षों में ज्यादा बेहतर समाजवादी मुल्क सिद्ध होगा। वह रोज समाजवाद की तरफ बढ़ेगा, बढ़ना पड़ेगा। संपत्ति जब अतिरिक्त हो जाएगी तो व्यक्तिगत कब्जे का कोई मतलब नहीं है। व्यक्तिगत कब्जे का एक ही अर्थ है कि कम है संपत्ति, न्यून है, तभी तक व्यक्तिगत कब्जे का अर्थ है। गांव में हवा पर हम कब्जा नहीं करते, क्योंकि हवा बहुत है। कब्जा करने का कोई मतलब नहीं है। जमीन पर हमने कब्जा किया, लेकिन कब किया? जब जमीन कम पड़ी और संख्या ज्यादा हुई। आज से सौ साल पहले तक जमीन पर कोई कब्जा न था। जो जितनी जमीन जोत लेता था वह उसकी हो जाती थी।

मेरे नाना ने मुझे कहा कि उन्हें जो जमीन मिली थी वह मुफ्त मिली थी। क्योंकि कोई जोतने वाला न था। जो जोत ले उसी को जमीन मिल जाती थी। जमीन का कोई मूल्य न था। संख्या कम थी, जमीन ज्यादा थी तो जमीन पर कोई कब्जा न था। संख्या ज्यादा हुई, जमीन कम पड़ी, जमीन पर कब्जा आ गया। जो चीज कम हो जाएगी उस पर कब्जा हो जाएगा।
संपत्ति जब तक कम है तब तक व्यक्तिगत कब्जे को हटाना मुश्किल है। और अगर हटाया तो संपत्ति का पैदा होना बंद हो जाएगा। क्योंकि पैदा होने की प्रेरणा विलीन हो जाएगी। संपत्ति इतनी हो जानी चाहिए जैसे हवा है, पानी है। ताकि उस पर व्यक्तिगत कब्जे का अर्थ खो जाए। 

अमरीका पचास वर्षों में समाजवादी हो सकता है। और वहां जो समाजवाद आएगा वह एकदम लोकतांत्रिक और अहिंसात्मक होगा। क्योंकि तब समाजवाद सहज आ जाएगा। संपत्ति के अतिरेक से आया हुआ समाजवाद ही सहज समाजवाद हो सकता है। लेकिन इस मुल्क में कैसे आ सकता है? हम तो बहुत बुरी हालत में हैं। यहां संपत्ति नहीं है। ये संपत्ति पैदा करने के मूल आधार हमें सोचने पड़ेंगे।

मैंने कुछ बातें कहीं इस आशा में कि आप सोचेंगे, विचार करेंगे। निर्णय जल्दी हमें लेना पड़ेगा देश को कि क्या करना है। निर्णय अगर हमने सोच कर लिया, नारेबाजी में नहीं लिया तो शायद सहज उपयोगी हो सके और नारेबाजी में निर्णय लिया तो खतरनाक भी हो सकता है। नारे सुंदर लगते हैं, इससे सत्य नहीं हो जाते। और कोई बात हमारी ईर्ष्या को तृप्त करती है, इससे सहयोगी और उपयोगी नहीं हो जाती।

और भी समस्याएं हैं, कल उन पर बात करूंगा। आपके कोई सवाल होंगे, वे लिख कर दे देंगे।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

ओशो
भारत के जलते प्रश्र 
प्रवचन २ से संकलन ।
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