* धर्म की क्रांति *
मेरे साथ एक महिला प्रोफेसर थी कालेज में। छह-सात वर्ष पहले उसने मुझे कहा कि मैं छोड़ कर जाना चाहती हूं और आपसे पूछने आई हूं कि मैं साईंबाबा के साथ ही जाकर जीवन लगा देने की मेरी इच्छा है। तो मेरे इस अध्यात्म में मुझे सफलता मिले, आप मुझे आशीर्वाद दे दें। तो मैंने उनसे कहा कि अगर मेरा वश चले तो मैं तुम्हें आशीर्वाद दूंगा कि तुम्हें इस तरह के अध्यात्म में सफलता न मिल जाए। क्योंकि यह अध्यात्म नहीं है, मदारीपन है। और किसी दिन अगर तुम्हें समझ में आ जाए कि मदारीपन है, तो लौट कर कम से कम मुझे कह देना। अभी मैं बंबई आया, मीटिंग से बोल कर उतरा, तो उस महिला ने आकर मेरे पैर छुए। तो मैंने पूछा कि कहां हो? क्या है? और तुमने पैर कैसे छुए?
उसने कहा, मैं सिर्फ आपके पैर उस दिन की स्मृति में छूने आई हूं कि जो आपने कहा था वह मैंने अनुभव कर लिया, अब मैं मुसीबत में पड़ गई हूं कि अब मैं क्या करूं? ये ताबीज जो निकलते हैं, सब बाजार से खरीदे जाते हैं। ये अंगूठियां जो आती हैं, सब बाजार से बनती हैं। ये सब बिस्तरों के नीचे छुपी रहती हैं, कपड़ों में छुपी रहती हैं। ये सब जब आंख से देख लिया है, तो अब मैं क्या करूं? अब मैं कहां जाऊं? ये अध्यात्म से इसका कोई भी संबंध नहीं है सिवाय इसके कि ये बिलकुल गैर-आध्यात्मिक कृत्य हैं।
ओशो; चेत सके तो चेत--(विविध)--प्रवचन--03
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