महाबीर कहते हैं, जब सच में ही आंतरिक ज्ञान का आविर्भाव होता है अपनी पूर्णयता में, तो व्यक्ति सिर्फ जानने की क्षमता मात्र
रह जाता है; जानकारी बिलकुल नहीं बचती। और ध्यान रहे, जानकारी जहां खत्म होती है, वहीं जानने वाला भी खत्म हो जाता है।
इसलिए लाओत्से के जोर का दूसरा हिस्सा भी ख्याल में ले लें की जानकारी जानने वाले को मजबूत करती है और ज्ञान जानने वाले
को मिटा डालता है। ये फर्क हैं। आप जितना ज्यादा जानने लगेंगे, उतना आपका मैं सघन, क्रिस्टलाइज हो जाएगा। आपकी चलने में अकड़ बदल जाएगी; आपके बोलने का ढंग बदल जाएगा। आपके भीतर कोई एक बिंदु , मैं जानता हूं, खड़ा रहेगा। जानकारी जितनी बढ़ती जाएगी, उतना ही यह मैं भी मजबूत होता चला जाएगा।
इससे उलटी घटना घटती है, जब ज्ञान विकसित होता है, आविर्भाव होता है भीतर से, जानने की क्षमता का जन्म होता है, तो बड़े मजे
की बात है, वह जो मैं है, एकदम शून्य होते-होते विलीन हो जाता है। जिस दिन पूरी तरह मैं विलीन होता है, उसी दिन वह जिसे
महावीर केवल ज्ञान, अकेला ज्ञान कह रहे हैं, वह फलित होता है।
पंडित और ज्ञानी में यही फर्क है।
"ओशो ताओ उपनिषद"
Mahabir says, when the inner knowledge really arises in its fullness, then the person is only capable of knowing
It remains Information does not escape at all. And remember, where the information ends, the knower also ends.
Therefore, take the second part of Lao Tzu's emphasis that information strengthens the knowledgeer and the knowledgeer
Wipes out These are the differences. The more you start to know, the more I become crystallized. Your strut will change; Your manner of speaking will change. One point within you, I know, will stand. The more the information will increase, the more I will become stronger.
This causes the reverse phenomenon, when knowledge develops, emergence comes from within, the ability to know is born, then great fun
It is a matter of, that the one who is me, disappears as soon as he becomes zero. The day I completely dissolve, the same day
Mahavira is saying only knowledge, knowledge alone, that results.
This is the difference between a pundit and a gyani.
"Osho Tao Upanishad"
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