हम जिस-जिस चीज के लिए संवेदनशील हो जाते हैं, वही-वही हमें पता चलता है। अगर हम आक्रमण के प्रति संवेदनशील हैं,अगर हमें लग रहा है कि सारा जीवन एक संघर्ष, युद्ध है, तो फिर हम रोज, हर घड़ी उन लोगों को खोज लेंगे जो शत्रु हैं, उन स्थितियों को खोज लेंगे जो संघर्ष में ले जाएं।
लाओत्से दूसरा गेस्टाल्ट, देखने का दूसरा ढंग, दूसरी सेंसिटिविटी दे रहा है। वह दूसरी संवेदनशीलता दे रहा है। वह कह रहा है की
सहयोग को खोजो। और जो आदमी उस भाव से खोजने निकलेगा, उसे मित्र मिलने शुरू हो जाते हैं। उसकी संवेदनशीलता दूसरी हो जाती है। वह मित्र को खोजने लगता है। और हम जो खोजते हैं, वह हमें मिल जाता है। या हम ऐसा कहें कि जो भी हमें मिलता है, वह हमारी ही खोज है। इस जगत में हमें वह नहीं मिलता, जो हमने नहीं खोजा है। इसलिए जब भी आपको कुछ मिले, तो आप समझ लेना की आपकी अपनी ही खोज है।
लेकिन हम ऐसा कभी नहीं मानते। अगर दुश्मन मिलता है, तो हम सोेचते हैं, हमारी क्या खोज है ? दुश्मन है, इसलिए मिल गया नहीं,
दुश्मन होने के लिए आप संवेदनशील हैं, आप तैयार हैं। खोज ही रहे हैं।
सहयोग की यह व्यवस्था, कोआपरेशन और कांफ्लिक्ट।
"ओशो ताओ उपनिषद"
Whatever we become sensitive to, that is what we know. If we are vulnerable to attack, if we feel that the whole life is a struggle, war, then every day, every day we will find those who are enemies, find the conditions that lead into conflict.
Lao Tzu second Gestalt, another way of looking, is giving second sensitivity. He is giving a second sensibility. He is saying that
Find cooperation And the man who goes out to search for that feeling starts to find friends. His sensitivity becomes another. He starts searching for a friend. And we find what we seek. Or should we say that whatever we get is our quest. In this world we do not find what we have not discovered. So whenever you get something, you understand that it is your own quest.
But we never believe that. If an enemy is found, we think, what is our search? The enemy is, therefore not found,
You are sensitive to being an enemy, you are ready. Looking only.
This mechanism of cooperation co-operation and conflict.
"Osho Tao Upanishad"
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