लाओत्से कहता है कि चुप भी हो जाता है सब, मौन से भी कह दिया जाता है, और निष्क्रियता से भी व्यवस्था हो जाती है।
व्यक्ति जो है, वह परमाणु हैेे चेतना का। हमारे मन में , सबके मन में, शक्ति की आकांक्षा है, महत्वकांक्षा है। धन चाहिए , शक्ति चाहिए , पद चाहिए , यश चाहिए , अस्मिता चाहिए , अहंकार चाहिए । लाओत्से की हम सुनेंगे और भाग खड़े होंगे। क्योंकि हमारा सब कुछ छीन लेने की बात है वहां। हमें लाओत्से देता तो कुछ भी नहीं, लेकिन सब ले लेता है। और हम सब भीखमंगे हैं। हम भिक्षा मांगने निकले हैं। लाओत्से के पास हम जरा भी न टिकेंगे। क्योंकि हमारे पास और जो है, भिक्षापात्र है, शायद वह भी छीन ले !
पूरब ने बीच में काफी नुकसान उठाया , ऐसा दिखाई पड़ता है। लेकिन अगर पूरब हिम्मत से लाओत्से और बुद्ध के साथ खड़ा रहे, तो पश्चिम को समझना पड़ेगा की उसने नासमझी की है खुद। उसने जो छीना, वे खिलौने थे। उनसे कुछ फर्क नहीं पड़ता था। और उसने जो खोया , वह आत्मा थी। और पूरब ने जो खोया, वे खिलौने थे। और जो बचाया, वह आत्मा थी। अगर पूरब निश्चित रूप से खड़ा रहे लाओत्से के साथ।
ओशो ताओ उपनिषद
Lao Tzu says that all is silenced, it is also said by silence, and inaction is also arranged.
The person is the atom of consciousness. In our mind, in everyone's mind, there is an aspiration for power, ambition. We want wealth, we want power, I want our position, I want fame, I want identity, I want arrogance. We will listen to Lao Tzu and stand up. Because there is talk of taking away everything. If Laotse had given us nothing, he would have taken all. And we are all beggars. We have gone out to beg. We will not stand even near Laotse. Because what else we have is a beggar, he might even take it away!
The East suffered a lot in the middle, it seems. But if the East courageously stands with Lao Tzu and Buddha, then the West will have to understand that he has done it himself. The toys he took were toys. He did not make any difference. And what he lost was soul. And what the East lost were toys. And the one who saved was the soul. If the East definitely stands with Lao Tzu.
Osho Tao Upanishad
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