"ओशो विज्ञान भैरव तंत्र "
चेतना पैर जैसी है, वह तुम्हारा स्वभाव है। मन चलने जैसा है, वह एक क्रिया है। जब चेतना एक जगह से दूसरे जगह जाती
है तब वह क्रिया मन है। जब चेतना अ से ब और ब से स को जाती है तब यह गति मन है। अगर तुम गति को बंद कर दो, तो मन नहीं रहेगा। तुम चेतन हो, लेकिन मन नहीं है। जैसे पैर तो है, लेकिन चलना नहीं है। चलना क्या है। कर्म है; मन भी क्रिया है, कर्म है।
अगर तुम कहीं रुक जाओ तो मन संघर्ष करेगा, मन कहेगा, बढ़े चलो। मन हर तरह से तुम्हें आगे या पीछे या कहीं भी धकाने की चेष्टा करेगा। कहीं भी सही , लेकिन चलते रहो। अगर तुम जिद्द करो, अगर तुम मन की नही मानना चाहो, तो वह कठिन होगा। कठिन होगा, क्योंकि तुमने सदा मन का हुक्म माना है। तुमने कभी मन पर हुक्म नहीं किया है। तुम कभी उसके मालिक नहीं रहे हो। तुम हो नहीं सकते, क्योंकि तुमने कभी अपने को मन से तादात्म्य रहित नही किया है। तुम सोचते हो कि तुम मन ही हो। यह भूल कि तुम मन ही हो मन को पूरी स्वतंत्रता दिए देती है। क्योंकि तब उस पर मलकियत करने
वाला, उसे नियंत्रण में रखने वाला कोई न रहा। तब कोई रहा ही नही, मन ही मालिक रह जाता है। लेकिन मन की यह मलकियत तथाकथित है। वह स्वामित्व झूठा है।
लेकिन मन की यह मलकियत तथाकथित है। वह स्वामित्व झूठा है। एक बार प्रयोग करो और तुम उसके स्वामित्व को नष्ट कर सकते हो। वह झूठा है। मन महज गुलाम है जो मालिक होने का दावा करता है। लेकिन उसकी यह दावेदारी इतनी
पुरानी है, इतने जन्मों से है कि वह अपने को मालिक मानने लगा है। गुलाम मालिक हो गया है। वह एक महज विश्वास है,
धारणा है। तुम उसकेविपरीत प्रयोग करके देखो और तुम्हें पता चलेगा। कि यह धारणा सर्वथा निराधार थी।
यह पहला सूत्रकहता है: ‘’या कल्पना करो कि मोर की पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पाँच इंद्रियां है। अब
उनके सौंदर्य को भीतर ही घुलने दो।‘’
"Osho Vigyan Bhairava Tantra"
Consciousness is like a foot, it is your nature. Mind is like walking, it is a verb. When consciousness moves from one place to another
Then that action is the mind. When consciousness moves from A to B and from B to S, then this motion is the mind. If you stop the movement, the mind will not be there. You are conscious, but do not have mind. Like there is a foot, but do not walk. What is walking Karma is; Mind is also action, action.
If you stop somewhere, the mind will struggle, the mind will say, move on. By all means, the mind will try to push you forward or backward or anywhere. Anywhere right, but keep going. If you insist, if you do not want to obey the mind, it will be difficult. It will be difficult, because you have always obeyed the command of the mind. You have never ruled the mind. You have never been its owner. You cannot be, because you have never disengaged yourself from the mind. You think that you are the mind. Forget that you are the mind, gives complete freedom to the mind. Because then to master it
Wala, there was no one to keep him under control. Then there is no one, the mind remains the owner. But this concept of mind is so-called. That ownership is false.
But this concept of mind is so-called. That ownership is false. Use it once and you can destroy its ownership. He is a liar. The mind is merely a slave who claims to be the owner. But his claim is so
He is old, from so many births that he has started to consider himself as the owner. The slave has become the master. He is just a believer,
Perception. Look at the opposite and you will know. That this notion was completely unfounded.
This first sutra says: "Or imagine that you have five senses in the five-ninth circle of the peacock's tail. Now
Let their beauty dissolve within. "
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