‘’अत्यंतिक भक्ति पूर्वक श्वास के दो संधि-स्थलों पर केंद्रित होकर…..।‘’
भीतर आनेवाली श्वास की एक संधि स्थल है। जहां वह मुड़ती है। इन दो संधि-स्थलों जसकी चर्चा हम कर चुके है—के
साथ यहां जरा सा भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बड़ा भेद हो सकता है।
केवल एक शर्त जोड़ दी गई है—‘’अत्यंतिक भक्ति पूर्वक’’, और पूरीविधि बदल गयी।
इसके प्रथम स्वरूप में भक्ति का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी। तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन
लोग है जो ऐसी शूक्ष्म वैज्ञानिक विधियों पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो हृदय की ओर झुके है। जो भक्ति के जगत के है, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है:अत्यंतिक भक्ति पूर्वक श्वास के दो संधि-स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
अगर तुम वैज्ञानिक रुझान के नहीं हो, अगर तुम्हारा मन वैज्ञानिक नहीं है, तो तुम इस विधि को प्रयोग में लाओ।
आत्यंतिक भक्ति पूर्वक प्रेम श्रद्धा के साथ श्वास के दो संधि स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
यह कैसे संभव होगा।
भक्ति तो किसी के प्रति होती है। चाहे वे कृष्ण हो या क्राइस्ट लेकिन तुम्हारे स्वयं के प्रति श्वास के दो संधि-स्थलों के प्रति भक्ति कैसी होगी। यह तत्व तो गैर भक्ति वाला है। लेकिन व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है।
तंत्र का कहना है कि शरीर मंदिर है। तुम्हारा शरीर परमात्मा का मंदिर है, उसका निवास स्थान है। इसलिए इसे मात्रअपना शरीर या एक वस्तु न मानो। यह पवित्रहै,धार्मिक है। जब तुम एक श्वास भीतर ले रहे हो तब तुम ही श्वास नहीं ले रहे हो, तुम्हारे भीतर परमात्मा भी श्वास ले रहा है। तुम चलते फिरते हो इसे इस तरह देखो,तुम नहीं, स्वयं परमात्मा तुममें
चल रहा है। तब सब चीजें पूरी तरह भक्ति हो जाती है।
अनेक संत- के बारे में कहा जाता है कि वे अपने शरीर को प्रेम करते थे, वे उसके साथ ऐसा व्यवहार करते थे। मानो वे शरीर
उनकी प्रेमिकाओं के रहे हो।
तुम भी अपने शरीर को यह व्यवहार दे सकते हो। उसके साथ यंत्रवत व्यवहार भी कर सकते हो। वह भी एक रुझान है, एक
दृष्टि है। तुम इसे अपराध पूर्ण पाप भरा और गंदा भी मान सकते हो। और इसे चमत्कार भी समझ सकते हो,परमात्मा का घर भी समझ सकते है, यह तुम पर निर्भर है।
यदि तुम अपने शरीर को मंदिर मान सको तो यह विधि तुम्हारे काम आ सकती है, ‘’आत्यंतिक भक्ति पूर्वक….।‘’ इसका
प्रयोग करो। जब तुम भोजन कर रहे हो तब इसका प्रयोग करो। यह न सोचो कि तुम भोजन कर रहे हो, सोचो कि परमात्मा
तुममें भोजन कर रहा है। और तब परिवर्तन को देखो। तुम वही चीज खा रहे हो। लेकिन तुरंत सब कुछ बदल जाता है। अब तुम परमात्मा को भोजन दे रहे हो। तुम स्नान कर रहे हो कितना मामूली सा काम है। लेकिन दृष्टि बदल दो, अनुभव करो
कि तुम अपने में परमात्मा को स्नान करा रहे हो, तब यह विधि आसान होगी।
‘’आत्यांतिक भक्ति पूर्वक श्वास के दो संधि स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।
ओशो-
"विज्ञान भैरव तंत्र"
"Very devoutly focused on the two places of breath… .."
There is a place of inner breath. Where she turns. These two treaty sites, which we have discussed —
Also a slight distinction has been made here. Although this distinction is a bit in the method, but there can be a big difference for the seeker.
Only one condition has been added - "very devoutly", and the whole method has changed.
In its first form, there was no question of devotion. It was the only scientific method. You experiment and it will work. but
There are people who will not work on such scientific methods. Therefore those who have bowed towards the heart. For those who belong to the world of devotion, a slight distinction has been made: Know the knower by concentrating on the two places of breath in utmost devotion. "
If you are not of scientific temper, if your mind is not scientific, then you should use this method.
Get to know the knower by focusing on two pact sites of breathing with extreme devotion.
How would this be possible?
Devotion is towards someone. Whether they are Krishna or Christ, but how will your devotion towards your self be connected to the two sandhi-sthals. This element is non-devotional. But it depends on the person.
Tantra says that the body is a temple. Your body is the temple of God, its abode. Therefore, do not consider it just your body or an object. It is sacred, religious. When you are taking a breath in, then you are not breathing, the divine is also breathing in you. You walk and look at it this way, not you, the divine in you
Its going on. Then everything becomes completely devotional.
It is said of many saints that they loved their bodies, they used to treat them like that. As if those bodies Have been his girlfriends.
You too can give this behavior to your body. You can also deal with him mechanically. That is also a trend
Vision. You can also consider it a sinful and sinful crime. And you can also consider it a miracle, you can also understand the house of God, it is up to you.
If you can consider your body to be a temple, then this method can work for you, "Extremely devotional..."
do experiment. Use it while you are having food. Do not think that you are eating food, think that God Is eating in you And then look at the change. You are eating the same thing. But immediately everything changes. Now you are giving food to the divine. You are taking a small bath. But change eyesight
That you are bathing the divine in you, then this method will be easy.
"Know the knower by concentrating on two pact sites of spiritual devotion."
Osho-
"Vigyan Bhairava Tantra"
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