आप जब भीतर बोल रहे हैं, आपके भीतर जब मंत्र चल रहा है शब्दों का, तब बाहर भी आपके शरीर, आपकी आंख, सब तरफ से प्रकट होता रहता है। लेकिन जब आप भीतर शून्य हो जाते हैं, तो बाहर शरीर भी शून्य हो जाता है। बुद्ध की प्रतिमा देखी या महावीर की प्रतिमा देखी? यह प्रतिमा बाहर से बिलकुल शून्य है। यह बाहर से इसीलिए शून्य है कि भीतर सब शून्य हो गया है। इसमें कोई
हलन -चलन नहीं है। सब ठहर गया है। जैसे पानी बिना तरंग के हो गया हो! जैसे हवा न चलती हो कमरे में और दीया की लौ ठहर
जाए ! ऐसे जब आप शून्य होते हैं, तब केंद्र पर पहुंचते हैं।
और लाओत्से कहता है, अपने केंद्र में स्थापित होना ही श्रेयस्कर है। शब्दों में भटकना नही, शून्य में ठहर जाना ही श्रेयस्कर है।
"ओशो ताओ उपनिषद"
When you are speaking inside, when the mantra is going on within you, then even outside, your body, your eye, appears from all sides. But when you become zero inside, then the outside body also becomes zero. Saw Buddha's statue or Mahavira's statue? This statue is absolutely zero from outside. It is zero from outside because everything inside is zero. Someone in
There is no movement. Everything has stopped. As if the water has gone without a wave! As if the wind does not move in the room and the flame of the lamp stops
Go! When you are zero, then you reach the center.
And Laotsse says, it is best to establish at your center. Do not wander in words, it is best to stay in the void.
"Osho Tao Upanishad"
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