यैस ओशो
अंक : अप्रैल 2020
स्तंभ : स्वास्थ्य
आलेख : डॉ. आत्मो मनीष, एम एस
कोरोना वायरस : मन का आइना
मान लीजिये कि आप एक फिल्म देख रहें हैं, आप उस फिल्म की कहानी में पूरी तरह से खो गए हैं और अचानक लाइट चली जाये, या किसी और कारण से फिल्म देखना अवरुद्ध हो जाए, तो निश्चित ही आपको अच्छा नहीं लगेगा, आप इस अचानक आए अवकाश के लिए तैयार नहीं थे। इस स्थिति में क्या हो रहा है? आप जो करना चाह रहे थे वह नहीं कर पा रहे हैं। अगर इस छोटे-से उदाहरण को जीवन और मृत्यु के संदर्भ में देखें तो पायेंगे हमारे जीवन की भी एक कहानी चल रही है मृत्यु इस चलती कहानी में अचानक आया व्यवधान है। हमारा मन इस व्यवधान के लिए कभी भी तैयार नहीं होगा। मृत्यु के संदर्भ में मन का रवैया शुतुरमुर्ग के समान होता है। वह अपने से कहीं बड़ी घटना का सामना नहीं कर सकता। इसलिए वह मृत्यु जैसी घटना को विस्मृत किए रहता है और अपनी कहानी चलाए रखता है। कोई भी ऐसी घटना जो इस कहानी के चलन में अल्प या दीर्घ व्यवधान डाले तो वह बेचैन और भयाक्रांत हो जाता है। तो मन कभी भी मृत्यु को नहीं जान सकता। वह उसे बहुत ही उथले तल पर समझ सकता है बस। दूसरी बात जो मन कभी नहीं समझ सकता वह है हम सब एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। हम इस ब्रह्मांड के, इस अस्तित्व के अभिन्न अंग हैं। अब विज्ञान भी रिसर्च की अनेक दिशाओं से इस ओर इशारा कर रहा है कि हम सब ऊपर से भले ही भिन्न दिखते हो पर एक ही समंदर की लहरें हैं। हमारे द्वारा किया गया कोई भी कृत्य पूरे अस्तित्व को प्रभावित करता है। भौतिक वैज्ञानिकों ने बटरफ्लाय इफेक्ट की खोज की कि एक निश्चित समय और गति से चला तितली का पंख, पृथ्वी के किसी दूरगामी क्षेत्र में तूफान का कारण हो सकता है। हमारे मन के बारे तीसरी जानने जैसी बात है, मन अधिकांशतः असुरक्षित महसूस करता है। और अक्सर वह सुरक्षा के उपायों को जुटाने में व्यस्त रहता है। सुरक्षा के लिए रोटी, कपड़ा, मकान का इंतजाम करना सहज है क्योंकि वे जीवन की अनिवार्यताएं हैं। पर मन मात्र इस इंतजाम से प्रसन्न नहीं होता। वह इस इंतजाम में भी लगा रहता है कि उसे जैसा जीवन जीने की आदत है वह जस का तस बना रहे। और जीवन का यह नियम नहीं है, वह तो ई सी जी ग्राफ की तरह है जो ऊपर नीचे होता रहता है। अब जब रूटीन ढर्रे में चीजें ऊपर-नीचे होती हैं तो वह असुरक्षा से घिर जाता है और उसे नियंत्रण में लाने के लिए हाथ-पांव मारने लगता है। यही वह स्थिति है जिसे हम बेचैनी और हताशा कहते हैं। मन के इन्हीं प्रपंचों को समझने के बाद हम कोरोना वायरस के बारे में आसानी से बातचीत कर सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन-जिन बातों को हमारा मन समझने में अक्षम है, यह वायरस उन्हीं-उन्हीं बातों को अनुभवगत तल पर गहराई से समझाने का प्रयास कर रहा है।
मन मृत्यु को समझना तो दूर उसके वजूद को भी स्वीकार करना नहीं चाहता, और इस वायरस ने संभावित मृत्यु से कभी भी संक्रमित हो जाने की संभावना को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मन जीवन के रूटीन को बदलना नहीं चाहता और कोरोना वायरस ने हमारे जीवन के बंधे-बंधाये रूटीन को पूरी तरह बदल दिया है और आगे यह दिखाई नहीं देता की क्या होने वाला है। मन अपने प्रपंचों की नींद मेम सोये रहना चाहता है और इस वायरस की वास्तविकता उसे झकझोर रही है। यही कारण है की एक भय घेर रहा है, एक बेचैनी पकड़ रही है, एक हताशा छा रही है। ऐसा लगता है कि कोरोना वायरस ने जन्म ले हमारे मन के सारे पत्ते खोल दिए। हमारी सारी सुरक्षाओं के होते हुए हम असुरक्षित हैं--और जीवन आज की परिस्थिति में ही नहीं, हमेशा ही ऐसा है। यदि मन हमेशा ही इस तथ्य के प्रति जाग्रत रहे तो भय, असुरक्षा, हताशा और बेचैनी की कोई जरूरत ही नहीं है।
फिर, मन की जो स्वयं को एक अलग-थलग इकाई मान कर जीने की आदत है उस भ्रम को भी यह वायरस तोड़ रहा है--हमें साफ़ दिखा रहा है की हम जो व्यवहार करेंगे वह दूसरों को प्रभावित करेगा, और दूसरे जो करेंगे वह हमें प्रभावित करेगा। वरना आमतौर पर तो हम अपने को एक अलग इकाई की तरह देखने के लिए इस कदर संस्कारित हैं की हम हर चीज को टुकड़ों में ही देखते हैं। हम अपने कृत्यों को अपने जीवन के एक टुकड़े की तरह देखते हैं और उनके परिणामों को दूसरे टुकड़े की तरह--उनके बीच भी कोई संबंध नहीं बैठा पाते। इसलिए जीवन में सीखने और बदलने की प्रक्रिया से हम अकसर गुजर नहीं पाते।
हालांकि, स्वभावगत चलता हुआ प्राकृतिक जीवन हमें हमेशा इशारों में सचेत करता रहता है लेकिन हम सुन नहीं पाते क्योंकि हमारा मन चीजों को एक पिरोई हुई श्रंखला मेम देखने की बजाय टुकड़ों में देखने का आदी है। हम अपने शरीर के संकेतों को ही नहीं सुन पाते , वरना तो बहुत सी बड़ी समस्याओं से तभी निपटा जा सकता है जब वे बहुत छोटी होती हैं। एक उदाहरण लें, मानिये हमें एसिडिटी की समस्या है और उसे हम नजरअंदाज किए जा रहे हैं तो निश्चित ही शरीर के अल्सर हो जायेगा, यह किसी चीज के होने का स्वाभाविक उपक्रम है। यदि समस्या को एसिडिटी के तल पर ही सुलझा लिया जाए तो अलसर से निपटने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
पृथ्वी भी हमारा फैला हुआ शरीर ही है और वह भी हमें संकेत देती रहती है, हम सुनें कि न सुनें। हम नहीं सुनते और फिर वे संकेत किसी बड़ी समस्या के रूप में सामने आते हैं।
सड़कें, कारखाने, इमारतें और एयरपोर्ट बनाने के लिए हम जंगल और पहाड़ियां काटते हैं और मौसम अस्त-व्यस्त होने लगते हैं--ये प्रकृति की ओर से छोटे संकेत हैं जिन्हें हम नहीं सुनते। हम इसकी परवाह नहीं करते की जंगल के जीवों का क्या होगा। कुछ जीव समाप्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं और कुछ जो मानवीय आबादी में स्वयं को एडजस्ट कर सकते हैं वे हमारे गांवों और शहरों में प्रवेश कर जाते हैं--जैसे की बंदर और चमगादड़ वगैरह। इसके साथ ही वे ऐसे वायरस भी ले आते हैं जो उनके शरीर में तो शांति से एक सहजीवन व्यतीत करते हैं लेकिन मनुष्य के शरीर के लिए अजनबी हैं। ये जीव जब किसी भी तरह हमारी भोजन श्रंखला के संपर्क में आते हैं तो ये अजनबी वायरस हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं और शरीर उनसे लड़ने लगता है और बीमार हो जाता है। वायरस क्यूंकि संक्रामक होते हैं, वे एक मनुष्य से दूसरे में फ़ैलने लगते हैं। महामारी की एक बड़ी समस्या हमारे सामने खड़ी हो गयी। अब हम चीख-पुकार मचायेंगे।
पहली बात कोरोना वायरस या ऐसे अन्य वायरस हमारे अस्तित्व का हिस्सा हैं। हम स्वयं बादल बनाते हैं और जब बारिश होती है तो हम शिकायत करते हैं । कोरोना वायरस हमारी शक्ल का हिस्सा है जो हमें पसंद नहीं आ रहा।
यह बात अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान दबी हुई जुबान से स्वीकार रहा है कि हमारे शरीर में पहले हो चुकी और आगे होने वाली सभी बीमारियां अस्तित्व में पहले से ही मौजूद हैं, इसके विपरीत हमारे शरीर में एक ऐसी अद्भुत व संवेदनशील परंतु जटिल क्षमता है जिसे रोग-प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं, इस क्षमता के जागरूक रहते हम बीमारियों से बचे रह सकते हैं। इस सदी के शुरुआत से हमने इस क्षमता से खेलना शुरू किया और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के नाम पर हमने अपनी इस क्षमता को लगभग पंगु बना दिया है। जरा-सा जुकाम हो तो दवाई, जरा-सा इंफेक्शन हो जाए तो एंटीबायोटिक्स…। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान बुरा नहीं है पर यदि हम छोटी-छोटी चीजों के लिए दवाइयां लेने के आदी हो जाएं तो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है, और इसका लाभ ले जाती हैं दवाई बनाने वाली कंपनियां और वे डॉक्टर जिनके लिए स्वास्थ्य एक महत्वाकांक्षी व्यवसाय है।
आधुनिकीकरण की दौड़ में ऐसे कृत्रिम साधनों पर निर्भर हो जाना जो प्रकृति के तत्वों से हमारा संपर्क तोड़ते हों, यह भी अपनी रोग-प्रतिरोधक क्षमता के साथ खिलवाड़ है--जैसे हर समय एयरकंडीशनर में रहना, वह भी ऐसा एयरकंडीशनर जो बेक्टेरिया व अन्य किटाणुओं को खत्म कर हवा भीतर फेंकता हो।
हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति प्रदत है, और दूसरी सहज अस्तित्वगत प्रक्रिया है मृत्यु। हमारा समाज जब तक मृत्यु को अभिशाप की तरह देखेगा उससे भयाक्रांत होगा, तब तक तब तक जो भी आपदा आएगी वह हमें मानसिक रूप से क्षीण करके ही विदा होगी।
इस आपदा से मुखातिब, एक तो हमें यह निर्णय लेना होगा की हमारे कृत्य पृथ्वी और इसके पर्यावरण में कोई असंतुलन पैदा न करें। हमे दूसरों को नहीं वरन स्वयं को बदलना होगा, इस बात को बहुत गहराई से समझना होगा हम पूरे अस्तित्व से जुड़े हुए हैं--यह बोझ नहीं वरन अद्भुत सौन्दर्य से भरी ज़िम्मेदारी है।
हम अपने शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने के लिए क्या कर सकते हैं? उतर सीधा सरल है --सृजन। जी हाँ, जापान में मनोशारीरिक विज्ञान के प्रणेता होकूजी सूरीनाम की रिसर्च के अनुसार किसी भी प्रकार का सृजनशील कार्य जीवेषणा से जुड़ा हुआ है , सृजन जीवन के प्रति हमारे प्रेम को दर्शाता है, सृजन में आनंद है, प्रसन्नता है--ऐसी मनः स्थिति के लोगों में रोगों से लड़ने की क्षमता अधिक पायी गयी उन लोगों की तुलना में जिन्होंने सृजनशीलता में कोई रुचि नहीं दिखाई , ऐसे व्यक्ति अधिकतर उदासीन प्रकृति के पाये गए। सृजन के लिए जरूरी नहीं कि हम पेंटिंग या संगीत के विशेषज्ञ हों। अपने मजे के लिए कुछ भी सृजन करें। किसी भी कृत्य में सृजनशीलता का तत्व समाहित हो सकता है। घर की सफाई और सजावट में सृजन को उतार लें। नृत्य भी सृजन है, रोज कुछ देर नृत्य कर लें। सृजनशीलता यानी आपने जो किया उसमें आपने अपना सबकुछ उंडेल दिया।
बहुत सी चिकित्सकीय शोधें हैं जो यह बताती हैं कि हंसी भी हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। रोज कुछ देर दिल खोलकर हंसें। यदि अकारण हंसना मुश्किल हो तो कोई कार्टून या कॉमेडी कार्यक्रम देख लें। बार-बार उन्हीं भयभीत करने वाले समाचारों को देखने से यह बेहतर होगा क्योंकि भय हमारी प्रतिरोधक क्षमता को कम करता है।
अब जब हम सभी अपने घरों में नजरबंद हैं तो ध्यान और सृजन के लिए क्या यह समय अनूकूल नहीं है? ओशो द्वारा दी गयी ध्यान की सक्रिय विधियां न सिर्फ बिखरे हुए मन, भाव, और शरीर को एकजुट करती हैं बल्कि अनावश्यक भय की ऊर्जा पर पल रहे मन को जड़ से उखाड़ने का कार्य भी करती हैं।
इस आपदा में जो समय और ऊर्जा हमें मिली है इसका अपने आप को जानने हेतु सदुपयोग करें। यह संसार हमारा ही विस्तार है , ऐसे समय में ध्यान और सृजनशीलता की ओर कदम बढ़ायें। अपना पूरी तरह खयाल रखना ही पूरे विश्व का खयाल रखने के समान है।
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Yes Osho
Issue: April 2020
Pillar: Health
Article: Dr. Atmo Manish, MS
Corona Virus: Mirror of Mind
Suppose you are watching a film, you are completely lost in the story of that film and suddenly the light goes off, or for some other reason the film is blocked, then you definitely will not like it, Aaya was not ready for the holiday. What is happening in this situation? You are not able to do what you wanted to do. If you look at this small example in the context of life and death, you will find a story going on in our life. Death is a sudden disruption in this moving story. Our mind will never be ready for this disruption. The attitude of mind in the context of death is similar to that of the ostrich. He cannot face an event bigger than himself. So he keeps forgetting the event like death and keeps his story going. Any such incident which causes short or long interruptions in the running of this story becomes restless and frightening. So the mind can never know death. He can understand it on a very shallow floor. The second thing that the mind can never understand is that we are all inextricably connected to each other. We are integral to this existence, of this universe. Now science is also pointing from many directions of research that even though we all look different from above, there are waves of the same sea. Any act done by us affects the entire existence. Physicists discovered the butterfly effect that a butterfly's wing, which moved at a certain time and speed, could cause a storm in a far-off region of the Earth. There is such a thing as knowing the third about our mind, the mind feels mostly insecure. And often he is busy mobilizing security measures. It is easy to arrange for bread, cloth, house for protection because they are the essentials of life. But the mind is not happy with this arrangement alone. He also keeps on arranging that he should remain as he is used to living life. And this is not the law of life, it is like an ECG graph that goes up and down. Now when things go up and down in the routine, he is surrounded by insecurity and starts to fidget to bring him under control. This is what we call restlessness and frustration. After understanding these complexities of the mind, we can easily talk about the corona virus. It seems that the things that our mind is unable to understand, this virus is trying to explain those same things deeply on the empirical plane.
The mind does not want to understand death and accept its existence, and this virus has brought us the possibility of getting infected anytime from possible death. The mind does not want to change the routine of life and the corona virus has completely changed the tied routine of our life and does not see what is going to happen next. The mind wants to stay asleep in the sleep of its great elements and the reality of this virus is shaking it. This is why there is a fear, a feeling of discomfort, a frustration. It seems that the corona virus took birth and opened all the leaves of our mind. Despite all our protections, we are insecure - and life is not always in today's situation, it is always so. If the mind is always awake to this fact then there is no need for fear, insecurity, frustration and restlessness.
Then, this virus is breaking the illusion of the mind which is used to live itself as an isolated entity - showing us clearly that the behavior we will affect others, and what others will do Will impress us. Otherwise, usually we are so cultured to see ourselves as a separate entity that we see everything in pieces. We see our acts as a piece of our life and our results like another piece - there is no connection between them. Therefore, we often do not go through the process of learning and changing in life.
However, by nature, natural life always alerts us in gestures but we are unable to listen because our mind is accustomed to see things in pieces instead of seeing a thread in a thread. We are not able to listen to the signals of our body only, otherwise many big problems can be dealt with only when they are very small. Take an example, suppose we have a problem of acidity and if we are being ignored, then the body will definitely get ulcers, it is a natural undertaking for something to happen. If the problem is resolved at the bottom of acidity then there will be no need to deal with ulcers.
The earth is also our stretched body and that too keeps on giving us signals, we should not listen or listen. We don't listen and then those signs come up as a big problem.
We cut down forests and hills to build roads, factories, buildings and airports and the weather starts to get messy - these are small signs from nature that we don't hear. We do not care what will happen to the creatures of the forest. Some organisms lead to extinction and some that can adjust themselves to human populations enter our villages and cities - such as monkeys and bats, etc. Along with this, they also bring viruses that spend a symbiosis in their body peacefully but are strangers to the human body. When these organisms somehow come in contact with our food chain, these strange viruses enter our body and the body starts fighting them and becomes ill. Because viruses are contagious, they spread from one human to another. A big problem of pandemic has arisen before us. Now we will scream.
Firstly, corona virus or other such viruses are part of our existence. We make clouds ourselves and we complain when it rains. The corona virus is part of our appearance, which we do not like.
It is now accepted from the suppressed tongue of modern medical science that all the earlier and future diseases are already in existence in our body, on the contrary our body has such a wonderful and sensitive but complex ability which disease -Preventive capacity says, we can avoid diseases by being aware of this ability. From the beginning of this century, we started playing with this ability and in the name of modern medical science we have almost paralyzed this ability. If there is a slight cold medicine, if there is a slight infection, then antibiotics…. Modern medical science is not bad, but if we get used to taking medicines for small things, then our immunity is weak, and it takes advantage of pharmaceutical companies and doctors for whom health is an ambitious business. is.
In the race for modernization, becoming dependent on artificial means that break our contact with the elements of nature is also playing with its immunity - like being in an air conditioner all the time, an air conditioner that is bacteria and other germs. Throwing air inside.
Our immunity is nature-oriented, and the second innate existential process is death. By the time our society sees death as a curse, it will be frightened by that, whatever disaster will come we will have to leave it mentally.
Out of this disaster, one must decide that our actions do not create any imbalance in the Earth and its environment. We have to change ourselves, not others but ourselves, we have to understand this very deeply - we are connected with the whole existence - it is not a burden but a responsibility filled with wonderful beauty.
What can we do to strengthen our body resistance? The answer is simple - creation. Yes, according to research by Hokuji Suriname, the pioneer of psychosocial science in Japan, any kind of creative work is associated with livelihood, creation reflects our love for life, there is joy in creation, happiness - in such a state of mind People were found more capable of fighting diseases than those who showed no interest in creativity, such people are mostly indifferent nature. Were found. We are not necessarily experts in painting or music for creation. Create anything for your fun. Any act can contain the element of creativity. Take off creation in home cleaning and decoration. Dance is also creation, dance for a while every day. Creativity means that you poured everything out of you.
There is a lot of medical research that suggests that laughter also increases our immunity. Laugh openly for a while every day. If it is difficult to laugh without reason, then watch a cartoon or comedy program. It would be better to watch the same frightening news again and again as fear reduces our immunity.
Now that we are all under house arrest, is this not the right time for meditation and creation? The active methods of meditation offered by Osho not only unite the scattered mind, emotion, and body, but also the act of uprooting the mind that is reeling from the energy of unnecessary fear.
Use the time and energy we have got in this disaster to know yourself. This world is our expansion, in such a time, move towards meditation and creativity. Taking care of yourself is like taking care of the whole world.
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