संपादकीय, यैस ओशो, अप्रैल 2020 अंक
कोरोना वायरस के साथ एक सुनहरा अवसर
संत दरियादास का एक पद है:
दरिया गैला जगत को क्या करिये समझाय।
रोग नीसरै देह में पत्थर पूजन जाय।।
यहां गैला का अर्थ है मूढ़, और नीसरै का अर्थ है उपजना। तो पूरे पद का अर्थ हुआ कि इस मूढ़ जगत को समझाकर क्या किया जाये, जो देह में रोग उपजने पर पत्थर की पूजा करने निकल पड़ता है।
ओशो इस पद का अर्थ समझाते हुए कहते हैं: ‘ये ऐसे पागल हैं, इनको कार्य-कारण तक का होश नहीं है। चेचक का रोग निकल आता है शरीर में और जाते हैं किसी पत्थर को पूजने। काली माता को पूजने चले! इनको इतना भी होश नहीं है कि कार्य-कारण तो देखो। शरीर में बीमारी है तो शरीर की चिकित्सा करो; तो शरीर के चिकित्सक के पास जाओ। पत्थर को पूजने चले! जिनको कार्य-कारण के संबंध तक का होश नहीं है, उनको परम तत्व की बात कहने से कुछ अर्थ नहीं है। ये सुन भी लें तो सुनेंगे नहीं। सुन लें, तो समझेंगे नहीं। समझ लें, कुछ का कुछ समझ लेंगे।’
यहां जिन पत्थरों को पूजने की बात चल रही है, वे कोई काली माता की मूर्ति तक सीमित नहीं है। ओशो बताते हैं कि ये पत्थर हमारे वे सब मत और विश्वास भी हो सकते हैं जिनमें हम कोई भी सहारा खोजते हैं। फिर वह महामृत्युंजय का पाठ हो कि कुरान खानी, गोमूत्र का सेवन हो कि सिंदूर का लेपन--यह सब, और इन जैसे बहुत से दूसरे टोटकों में तो देख पाना कोई बहुत मुश्किल नहीं है कि मन अदृश्य मूर्तियां गढ़ रहा है। लेकिन मुश्किल तब हो जाती है जब ये मूर्तियां सूक्ष्म रूप लेकर विज्ञान, मनोविज्ञान और अध्यात्म से चुराए हुए कपड़े पहन लेती हैं--चुराए हुए कपड़े यानि चुराई हुई भाषा, जो प्रतीत तो बहुत अधिकारपूर्ण हो, लेकिन निदान व निष्कर्ष के पीछे न कोई शोध और न कोई अनुभव।
कोरोना वायरस के इस संक्रमण काल में हम ऐसी बहुत-सी सूक्ष्म मूर्तियों को उभरते हुए देख रहे हैं। सोशल मीडिया रोज इनसे भरा जा रहा है। बहुत से विशेषज्ञ कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो बता रहे हैं कि कौनसा आहार, कौनसा व्यवहार या कौनसी क्रिया आपके शरीर में वायरस को निष्क्रिय कर देगी, या फिर और आगे बढ़ते हुए बताते हैं कि इस वायरस को प्रकृति से ही समूल नष्ट कर देगी।
जबकि चिकित्सा वैज्ञानिक अभी तक इस विषय में किसी पक्के निष्कर्ष तक नहीं पहुंचे हैं, वे केवल इतना ही बता रहे हैं कि हम संभवतया वायरस से संक्रमित होने से कैसे बच सकते हैं। किसी भी दूसरे व्यक्ति से कम से कम छः फीट की दूरी बनाए रखना, सार्वजनिक जगहों पर किसी सतह को न छूना, हाथों से चेहरे को न छूना, हाथों को बार-बार साबुन के पानी से धोते रहना, कुनकुना पानी पीते रहना, सत्तर डिग्री पर पकाया हुआ ताजा खाना ही खाना, बाहर से आई या लाई किसी भी चीज को डिसइनफेक्ट करना, अनावश्यक घर से न निकलना, आवश्यकता पड़ने पर घर से निकलें तो एन-95 मास्क का उपयोग करें जो चेहरे पर बिलकुल भी ढीला न हो--कुल जमा में ये कुछ उपाय हैं जो चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बताये हैं जिनसे शायद हम वायरस के संक्रमण से बच सकें। विश्व भर के इन वास्तविक विशेषज्ञों का जोर सोशल डिस्टेंसिंग पर है, और जहां जरूरी हो वहां आंशिक या संपूर्ण लॉकडाउन यानि तालाबंदी पर।
भारत के मौजूदा लॉकडाउन से पहले प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को जब एक दिन के जनता कर्फ्यू का ऐलान किया तो उन्होंने यह भी कहा कि सब लोग अपने-अपने दरवाजों, खिड़कियों या बालकनियों में आकर ताली, थाली या घंटी बजाते हुए उन लोगों को सम्मानित करें जो अपनी जान के जोखिम की परवाह न करते हुए हमें स्वास्थ्य, स्वच्छता व अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए बाहर निकलेंगे।
अचानक कुकुरमुत्ता विशेषज्ञ बताने लगे कि कैसे सामूहिक रूप से पैदा की गई ध्वनि की तरंगें वायरस को नष्ट कर देंगी। उन्होंने अमावस्या, बुरी शक्तियों, व ध्वनि-विज्ञान का एक पूरा शाब्दिक मायाजाल खड़ा कर दिया। यह एक सूक्ष्म मूर्ति खड़ी हो गई जिसे पूजने करोड़ों निकल पड़े। वे भूल गए कि यह ताली और थाली उन्हें किन्हीं के सम्मान में बजानी थी, वे तो वायरस का संहार करने वाली सुर-सेना बन गए। हमने देखा कि कैसे थालियों को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया गया, कैसे सड़कों पर भीड़ें इकट्ठी हो गईं और पटाखे फोड़े गए, कैसे लोग उन्माद में आकर टीन के पत्तरों को पीट-पीटकर ‘गो, कोरोना गो’ चिल्ला रहे थे, कैसे लोग सोशल डिस्टेंसिंग को जीभ चिढ़ाते हुए हाथ पकड़-पकड़कर नाच रहे थे--जैसे कोरोना वायरस पर फतह पा ली हो।
फिर अभी कल ही प्रधानमंत्री ने एक और आह्वान किया कि 5 अप्रैल को रात 9 बजे सभी लोग नौ मिनट के लिए अपने-अपने दरवाजों और बालकनियों पर दीये, टॉर्च या मोबाइल की रोशनी करें। उसके पीछे मंशा थी कि लॉकडाउन के दौरान लोग जो अलग-थलग या अकेले पड़ गए हैं वे नौ मिनट के लिए ही सही, लेकिन इस अकेलेपन की बेचैनी से बाहर आकर एक सामूहिकता के भाव में प्रवेश कर जाएं। चीन और इटली में बिना किसी प्रशासनिक आह्वान के ऐसे सहज-स्फूर्त प्रयोग तालाबंद लोगों द्वारा किए जा चुके हैं। यूरोप और अमरीका में तो लोग अपनी-अपनी खिड़कियों पर आकर पूरा एक ऑर्केस्ट्रा खड़ा कर दे रहे हैं--कोई गिटार बजाने लगता है, कोई ड्रम, तो कोई गाने लगता है, और बाकी लोग तालियों और चुटकियों से संगीत की लय में जुड़ जाते हैं। लोगों ने अपनी-अपनी खिड़कियों पर आकर एक साथ हंसने के प्रयोग भी किए हैं। इन प्रयोगों के लिए आमंत्रण लोग खुद ही व्हॉट्सएप से फैला रहे हैं और उनमें जुड़ रहे हैं। संगीत और हास्य के ये प्रयोग मानसिक रूप से स्वास्थ्यदायी भी होते हैं और सबके साथ एक परस्पर सह-अस्तित्व का बोध भी जगाते हैं। और हां, इन प्रयोगों का उपयोग वायरस से लड़ने के लिए नहीं बल्कि लॉकडाउन की बेचैनी से उबरने के लिए है।
लेकिन यहां, प्रधानमंत्री के मोमबत्तियां जलाने के आह्वान के साथ ही कई कुकुरमत्ता विशेषज्ञ प्रकट हो गए। कोई इसे वायरस के संहार के लिए धनुर्धारी राम को आमंत्रित करने का प्रयोग बताने लगा, तो कोई इसे भाव-ऊर्जा की शक्ति को जगाने का प्रयोग सिद्ध करने लगा। कइयों ने तो इसमें ऐसा सनातन विज्ञान खोज डाला कि अचंभित रह जाएं। उदाहरण के तौर पर एक कुकुरमुत्ता विशेषज्ञ की निष्पत्ति यहां प्रस्तुत है, जो सोशल मीडिया पर बहुत घुमाई जा रही है: ‘5 अप्रैल को वामन द्वादशी है। इस दिन पृथ्वी सूर्य से अधिकतम प्रकाश प्राप्त करती है जो वायरस पैदा करने वाले रोगों को बल देता है। वायरस एक शैतानी शक्ति है जो अंधकार से पोषित होता है। आदियोगी पुराण के अनुसार ऐसी शैतानी शक्तियों को नष्ट करने का एक उपाय है कि फोकस के साथ उन प्रकाश डाला जाए। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने हमसे कहा है कि हम सब अपनी बत्तियां बुझाकर अंधेरा कर दें और फिर छोटे-छोटे दीयों या मोमबत्तियों को जलाएं, जिनके प्रकाश में एक फोकस होगा। हमारे छोटे-छोटे दीयों और मोमबत्तियों का प्रकाश एक शक्तिशाली बीम बनकर कोरोना वायरस के हृदय को चीरता हुआ उसे नष्ट कर देगा, और फिर हम वास्तविक रामनवमी मना पायेंगे। पहले तो प्रधानमंत्री केवल मास्टर स्ट्रोक किया करते थे, इस बार वह मास्टरबीम लेकर आए हैं।’
कमाल है भाईसाहब! सबसे पहले तो वायरस से रोग पैदा होता है न कि रोग से वायरस। और दूसरी बात, यदि वायरस की ‘शैतानी शक्ति’ अंधेरे से पोषित होती है तो वामन द्वादशी को पृथ्वी जो सूर्य का अधिकतम प्रकाश ग्रहण करेगी, उसमें उसे खुद ही मर जाना चाहिए। लेकिन आप फोकस्ड लाइट की शर्त पर ही आमादा हैं, तो आपकी दीयों की रोशनी तो हवा में फोकस्ड होगी और कोरोना वायरस हवा में ठहरता ही नहीं। और फिर वायरस इतना छोटा होता है कि एक दीये की रोशनी भी उसके लिए ऐसी होगी जैसी एक मनुष्य के लिए चार सूर्यों की रोशनी, फोकस क्या खाक करेंगे?
यह सारा ढकोसला-विज्ञान सिवाय राजनैतिक चाटुकारिता के और कुछ भी नहीं है। शायद किसी प्रचार-तंत्र का हिस्सा भी हो। इन कुकुरमुत्ता विशेषज्ञों की निष्पत्तियां ऐसी ही होती हैं जैसे गणित में कमजोर कुछ बच्चे करते हैं--पहले वे किताब के पीछे छपा उत्तर पढ़ लेते हैं और फिर कैसा भी जोड़-घटा-भाग करके गणित की समस्या को उस उत्तर तक पहुंचा देते हैं। और यहां तो कोई छपा हुआ उत्तर भी नहीं है, ये कुकुरमुत्ते पहले उत्तर लिखते हैं और फिर अपने जोड़-घटा-भाग से हर समस्या को उस उत्तर तक पहुंचा देते हैं।
लेकिन यहां यह सब कहने का यह आशय बिलकुल नहीं है कि आप दीये न जलाएं। जरूर जलाएं। लेकिन उनको जलाने का उपयोग जानते हुए जलाएं। दीये जलाकर आप किसी वायरस से लड़ने नहीं जा रहे हैं। लड़ाई थकाती है। लड़ाई विजय भी लाती है तो उसमें हम बहुत कुछ हार चुके होते हैं। फिर, जब आप वायरस को नष्ट करने की आशा में दीये जलायेंगे औैर कुछ ही दिन में पाएंगे कि वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या अब दुगुनी हो चुकी है तो पहले से अधिक निराशा में गिर जायेंगे। कृपया लड़ाई की भाषा से बचें। न ही किसी अंधकार को चुनौती देकर उसे प्रकाश की ताकत का परिचय देने के लिए दीये जलाएं। अस्तित्व में जितना जरूरी प्रकाश है, उतना ही जरूरी अंधकार भी है। मां के गर्भ में या धरती की कोख में यदि अंधकार न हो तो इस पृथ्वी पर किसी भी प्रकार का जीवन होगा ही नहीं।
दीये जलाएं तो प्रकाश और अंधकार को एक-दूसरे से खेलता हुआ देखें। इस खेल में प्रकृति की उस सरगम को भी देखें जिसमें दिन-रात, जीवन-मृत्यु, अंधकार-प्रकाश, सुख-दुख सब सह-अस्तित्व में हैं। दीये जलाएं तो इस गीत को याद कर लें:
शाख पर जब धूप आई घर बनाने के लिए
छांव छम से नीचे उतरी हंस के बोली आइए
यहां सुबह से खेला करती है शाम...।
हवाओं पे लिख दो, हवाओं के नाम
हम अंजान परदेसियों का सलाम...।
मरे हुए धर्मों और मारती हुई राजनीति की केंचुली से निकलकर, सौहार्द के लिए दीये जलाएं, संपूर्ण जीवन के सह-अस्तित्व के सम्मान में दीये जलाएं। और ‘संपूर्ण जीवन’ यदि हमारे लिए मात्र एक खोखला शब्द न हो तो उसमें वे सब मनुष्य भी आते हैं जिन्हें हम अपने राजनैतिक व सांप्रदायिक विश्वासों के कारण शत्रु मानते हैं, हर समस्या का दोषी मानते हैं।
यदि प्रकाश और अंधकार की जुगलबंदी के सम्मान में, और सबके साथ सह-अस्तित्व के भाव में दीये जलाते हैं तो यह एक सामाजिक इवेंट से बढ़कर आपको ऊंचाई के एक नए पायदान पर ले लाने वाला एक प्रयोग हो जाएगा। फिर एक दिन ही क्यों, रोज करें--बस यह कोई क्रिया-कांड न हो। वरना क्रिया-कांड तो ध्यान को भी बना लिया जा सकता है। थोड़ा सूं-सूं करके सांस छोड़ ली, थोड़ा आ-ई कर लिया, थोड़ा रुक-रुककर उछल लिए, थोड़ा सो गए, थोड़ा अनमने से शरीर को हिला-डुला लिया--हो गया सक्रिय ध्यान का क्रिया-कांड और लगे परिणामों का इंतजार करने।
बहुत से कुकुरमुत्ता विशेषज्ञ इस समय ओशो की ध्यान विधियों को भी कोरोना वायरस का इलाज बनाकर प्रस्तुत कर रहे हैं, ऑनलाइन सामूहिक प्रयोग करवा रहे हैं। यह ध्यान को क्रिया-कांड बनाना हुआ, यह देह में उपजने वाले रोग की रोकथाम के लिए पत्थर को पूजने के समान हुआ। ओशो द्वारा दी गई ध्यान की सक्रिय विधियों में क्योंकि बहुत-सी शारीरिक क्रियाएं हैं इसलिए वे शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत से अनुकूल परिणाम लाती हैं, उनमें रेचन भी है इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी प्रभावकारी होती हैं। ओशो ने इन परिणामों के बारे में बताया भी है--जिसका आधार हजारों लोगों पर उनके खुद के प्रयोग, और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की बहुत-सी शोध भी हैं। लेकिन न तो कभी ओशो ने ऐसा बताया है और न ही इस पर विशेषज्ञों की कोई शोध है कि ध्यान विधियां किसी को वायरस के संक्रमण से बचा सकें। वायरस के संक्रमण से तो बुद्धों का शरीर भी नहीं बचता। जब कभी शहर में वायरल फ्लू फैलता था तो ओशो के चिकित्सक उन्हें प्रवचन में न जाने का सुझाव देते थे, जिसे ओशो सुनते भी थे। यह सोशल डिस्टेंसिंग का ही प्रयोग था, जिसकी सलाह आज भी स्वास्थ्य विशेषज्ञ दे रहे हैं। उन्हीं के सुझाव सुनें तो बेहतर होगा।
यदि वायरस से बचने के लिए ध्यान कर रहे हैं तो कृपया न करें। उससे कुछ नहीं होगा। ओशो की ध्यान विधियां उसीलिये हैं जिसलिए उन्होंने दी हैं--मन की परतों के साक्षात्कार के लिए, मनातीत मौन के अनुभव में उतरने के लिए, जहां हर्ष है। यदि इस समय में आपने ध्यान को इसलिए चुना है कि पहले रोज की उहा-पोह में समय नहीं मिल पा रहा था और इस मिल गए समय का उपयोग आप किसी भी और चीज से अधिक भीतर उतरने के लिए करना चाहते हैं, तो बहुत सुंदर। यदि यह समय आपको एक संक्रमण काल की तरह नजर आ रहा है जिसमें हर तल पर एक अनिश्चितता है, और अचानक आपको यह प्रतीति हो आई है कि जीवन तो सदा ऐसा ही है लेकिन संकट के इस समय में मैं उसे महसूस कर पा रहा हूं, और उससे यह भाव सघन हो रहा है कि अब वास्तविक जीवन को जान लूं--यदि इसलिए आप ध्यान कर रहे हैं तो बहुत ही सुंदर।
और फिर यह समय सुनहरा समय है। यह समय है जब ध्यान एक घंटे की जाने वाली प्रक्रिया न होकर हमारे जीवन के हर कृत्य में उतर सकता है। हममें से अधिकांश के लिए डैडलाइंस को लेकर समय का कोई दबाव नहीं है। हम अपने हर छोटे से छोटे कृत्य में समग्रता से तल्लीन हो सकते हैं। जैसा कि ओशो कहते हैं--फर्श पर ऐसे झाड़ू लगाया जा सकता है जैसे ताजमहल बना रहे हों, भोजन ऐसे बनाया जा सकता है जैसे कोई गीत गा रहे हों। चेहरे को हाथ से न छूना भी सजगता का एक सतत प्रयोग बन सकता है--हाथ उठा चेहरे को छूने के लिए, आप अचानक रुक गए बीच में, और उसे रुके हुए क्षण में अचानक जैसे सब मौन हो गया। इस समय जब जीवन को बहुत तलों पर नए ढंगों से जीना पड़ रहा है तो हम देख सकते हैं कि रोजमर्रा के आम जीवन में हम जो भी करते हैं उसमें से कितना अनिवार्य है, कितना नाहक, और कितना बस आदतवश। हमें दिखाई पड़ सकता है कि अपने व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में कौनसे ऐसे परिवर्तन हैं जो हमें लगता था कि संभव ही नहीं हैं लेकिन आ गए हैं और सुंदर परिणाम लाए हैं--जैसे अचानक प्रकृति से कितने ही प्रदूषणों का विदा हो जाना।
इस समय बेचैनियां भी उभरेंगी, अनिश्चितताएं भी, घबराहट भी, भय भी। ये सभी बहुत मानवीय भाव हैं और हम सभी रोज किसी न किसी मात्रा में इनसे गुजरते हैं, लेकिन चूंकि उनसे निपटने का समय हमारे पास नहीं होता इसलिए हमारा स्वचालित यंत्र उन्हें दबा लेता है और वे हमारे शरीर व मन में रोग बनकर बैठ जाते हैं। अब चूंकि समय है तो स्वचालित यंत्र ढीला पड़ जाएगा और हम उन्हें ज्यादा देख पायेंगे। जो प्रतिभाशाली होंगे वे देख पाएंगे कि जो भाव मुझ में उभर रहे हैं वे इसलिए उभर रहे हैं कि वे मेरे संस्थान का हिस्सा हैं, किसी परिस्थिति ने उन्हें पैदा नहीं किया है। परिस्थिति ने उन्हें मात्र उभारा है, और यह परिस्थिति ऐसी है कि इसमें वे स्पष्टता से दिख रहे हैं। अब चूंकि हमारे पास समय है तो हम वे प्रयोग कर सकते हैं जिनमें ओशो सुझाते हैं कि भय है तो हम भय से भागने की बजाय उसमें पूरे उतर जाएं, बेचैनी है तो बेचैनी में पूरा उतरकर उसे देख लें--और उसके पूरे दर्शन में ही उसे विदा होते हुए देखें, अपनी सारी जड़ों समेत।
इसके विपरीत, ऐसा भी होगा कि पूरी परिस्थिति की अनिश्चितता को जानते-
समझते हुए भी आप स्वयं को अपने केंद्र में केंद्रित पाएं, आप पाएं कि आप जीवन की छोटी-सी छोटी चीज को--चाहे वह चाय की एक प्याली क्यों न हो--एक महोत्सव की तरह जी रहे हैं। तब आपकी श्रद्धा उस जीवन शैली के प्रति और गहन होगी जो आपने ओशो के साथ जी है। आपके पांवो को और बल मिलेगा। आप अपनी यात्रा में और भी त्वरा ला सकते हैं।
ओशो कहते हैं कि कोई भी संक्रमण का काल हममें से सर्वश्रेष्ठ और निकृष्टतम को बाहर ला सकता है। यदि समय का उपयोग स्वयं पर लौटने के लिए कर लें, स्वयं के साथ कुछ प्रयोग करने के लिए कर लें तो श्रेष्ठतम संभावनाएं बाहर आ सकती हैं। समय काटने के लिए राजनैतिक स्वार्थों द्वारा पैदा किए गए हिंदू-मुसलमान और चीन-पाकिस्तान के मुद्दों में उलझे रहे तो अपने भीतर बस द्वेष को जगाएंगे। और यह याद रखिये द्वेष अपने टारगेट बदलता रहता है, आपको पता भी नहीं चलता कि कब वह आपके भीतर आपको ही अपना टारगेट बना लेता है।
समय सुनहरा है तो चूकें तो मत ही। दरियादास के साथ ही शुरुआत की थी, आइए उन्हीं के साथ समापन भी करें। दरियादास कहते हैं--मत चूके ओ उल्लुआ, काल सुनहरा चीन्ह। यानि अरे उल्लू चूकना मत, सुनहरे समय को पहचान।
स्वस्थ रहें, सौहार्दपूर्ण रहें, सुंदर रहें।
संजय भारती
नोट: जो भी मित्र इस आलेख को फेसबुक या व्हॉट्सएप से अन्यों को शेयर कर सकते हैं, जरूर करें, ताकि कई लोग जो प्रतीक्षारत हैं उन्हें शायद आपके माध्यम से उपलब्ध हो सके। यैस ओशो के अप्रैल माह के अन्य स्तंभ भी हम एक-एक करके यहां प्रस्तुत करते रहेंगे।
संपादक-यस ओशो
संजय भारती
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Editorial, Yes Osho, April 2020 issue
A golden opportunity with the corona virus
Saint Dariyadas has a post:
Explain what to do to the darya gala world
Disease should be worshiped in the dead body.
Here gala means fool, and neesrai means to yield. So, the meaning of the whole verse is what to do by explaining to this foolish world, which comes out to worship the stone if disease arises in the body.
Osho explains the meaning of this verse, saying: 'They are such crazy, they do not even have any sense of reason. Chicken pox comes out in the body and goes to worship a stone. Let's go to worship Kali Mata! They are not even conscious that they see the work-cause. If there is disease in the body, treat the body; So go to the doctor of the body. Let's go to worship the stone! Those who are not even aware of the relation of work-cause, there is no meaning in speaking of the ultimate element. Even if you listen to this, you will not listen. If you listen, you will not understand. Understand, some will understand something. '
The stones that are being talked about here are not limited to the idol of Kali Mata. Osho says that these stones can also be all our beliefs and beliefs in which we seek any support. Then it should be the text of Mahamrityunjaya that the Quran should be eaten, cow urine should be consumed with vermilion - all this, and in many other such pieces, it is not very difficult to see that the mind is creating invisible idols. But it becomes difficult when these idols take subtle forms and wear clothes stolen from science, psychology and spirituality - stolen clothes i.e. stolen language, which seems to be very authoritative, but no research behind diagnosis and conclusion No more experience.
During this transition period of Corona virus, we are seeing many such miniature idols emerging. Social media is being filled with them every day. Many experts have grown like mushrooms, telling which diet, which behavior or what action will neutralize the virus in your body, or going on further, they say that this virus will destroy the whole nature. .
While medical scientists have not yet reached a firm conclusion on this subject, they are only explaining how we can possibly avoid getting infected by the virus. Maintaining a distance of at least six feet from any other person, not touching any surface in public places, not touching the face with hands, washing hands repeatedly with soapy water, drinking kinkuna water, seventy degrees But eat freshly cooked food, disinfect anything from outside or brought in, do not leave unnecessary house, leave home if necessary, then use N-95 mask which covers all over face. There are some measures not be - total deposits bring that described by medical scientists that perhaps we can avoid virus infection. The emphasis of these real experts around the world is on social distancing and, where necessary, partial or complete lockdown.
Before India's current lockdown, on March 22, when the Prime Minister announced a one-day public curfew, he also said that everyone should come in their doors, windows or balconies to honor those people by clapping, thali or bell Those who do not care for the risk of their lives will go out to provide us with health, hygiene and other essential facilities.
Suddenly mushroom experts began to tell how the sound waves produced collectively would destroy the virus. He created a complete literal web of amavasya, evil powers, and acoustics. It became a small idol which crores of worshipers came out. They forgot that this clap and thali was to be played in honor of someone, they became a surrogate to destroy the virus. We saw how the plates were knocked down, how crowds gathered in the streets and firecrackers broke, how people came in a frenzy, shouting 'Go, Corona Go', beating people with tin leaves, how people Tongues teasing social distancing, dancing with gripping hands - as if corona virus had conquered.
Then just yesterday, the Prime Minister made another call that everyone should light a lamp, flashlight or mobile at their doors and balconies for nine minutes at 9 pm on 5 April. The intention behind that was that the people who have been isolated or alone during the lockdown should be right for nine minutes, but come out of the discomfort of this loneliness and enter into a sense of collectivity. In China and Italy, such spontaneous experiments have been carried out by locked people without any administrative call. In Europe and America, people are coming to their windows and setting up an entire orchestra - someone starts playing the guitar, someone starts playing drums, some songs, and the rest gets added to the rhythm of the music by the applause and the jokes. Huh. People have also done experiments to come to their windows and laugh together. Invitations for these experiments are being spread by people themselves and joining them. These uses of music and humor are also mentally healthy and also evoke a feeling of mutual co-existence with everyone. And yes, these experiments are not used to fight the virus but to overcome the discomfort of lockdown.
But here, with the Prime Minister's call to burn candles, many mushroom experts appeared. Some began to use it to invite the archer Ram for the destruction of the virus, and some proved it to be an experiment to awaken the power of emotion. Many have discovered such eternal science in it that they should be surprised. For example, here is the culmination of a mushroom expert, who is being widely rotated on social media: 'Vamana Dwadashi is on 5 April. On this day, the Earth receives maximum light from the Sun, which forces the diseases causing viruses. Virus is a demonic force nurtured by darkness. According to Adiyogi Purana, one way to destroy such demonic powers is to throw those light with focus. This is the reason why the Prime Minister has told us that we all turn off our lights by turning the lights on and then light small lamps or candles, whose light will have a focus. The light of our small lamps and candles will form a powerful beam, tearing the corona virus's heart and destroying it, and then we will be able to celebrate the actual Ram Navami. Earlier, the Prime Minister used to do only master strokes, this time he has brought the masterbeam. '
Amazing brother! First of all, disease is caused by virus and not by disease. And secondly, if the 'devilish power' of the virus is nourished by darkness, then the Earth which Vamana Dwadashi will receive the maximum light of the Sun, should die on its own. But you are intent on the condition of focused light, then your lamps will be focused in the air and the corona virus does not stay in the air. And then the virus is so small that even the light of a lamp will be like that for a human, the light of four suns, what will focus focus on?
All this fraud is nothing but political sycophancy. May also be part of some publicity system. The conclusions of these mushroom experts are similar to what some children who are weak in mathematics do - first they read the answer printed on the back of the book, and then add the subtraction to the math problem. And there is no printed answer here, these mushrooms first write the answer and then with every addition and subtraction, they convey every problem to that answer.
But to say all this here, there is absolutely no intention not to light lamps. Definitely light it. But burn them knowing you use them. By lighting diyas, you are not going to fight any virus. The battle is exhausting. If the battle brings victory, then we have lost a lot in it. Then, when you light the lamps in the hope of destroying the virus and within a few days you will find that the number of people infected with the virus has doubled now, you will fall in more despair than before. Please avoid fighting language. Nor light a lamp to challenge the darkness to show the power of light. As much as necessary light exists in existence, equally necessary darkness. If there is no darkness in the mother's womb or in the womb of the earth, there will be no life on this earth.
If you light lamps, watch light and darkness play with each other. In this game also look at the gamut of nature in which day-night, life-death, darkness-light, happiness and sorrow are all co-existing. If you light lamps, remember this song:
When the sun shines on the branch to build the house
Come down from Chaan Chham
Here she plays from morning to evening….
Write on the winds, the names of the winds
We salute the strangers….
Get out of the center of dead religions and killing politics, burn lamps for harmony, in honor of the coexistence of whole life. And if 'whole life' is not just a hollow word for us, then all those human beings who are considered enemies by our political and communal beliefs, blame every problem.
If lighting lamps in honor of the juggling of light and darkness, and in the sense of co-existence with everyone, then it will become an experiment to take you to a new level of height, more than a social event. Then why only one day, do it everyday - it should not be an action-case. Otherwise, meditation can also be made. Breathing out a little, took a little breath, bounced a little intermittently, slept a little, shook the body with a little movement - became the action-scandal of active meditation and the consequences. To wait.
Many mushroom experts are presently presenting Osho's meditation methods by treating corona virus, and conducting mass experiments online. This meditation became an action-scandal, it was like worshiping a stone to prevent disease arising in the body. The active methods of meditation given by Osho have many physiological functions, so they bring many favorable results on physical health, they also have catharsis and are therefore effective for mental health. Osho has also told about these results - based on his own experiments on thousands of people, and a lot of research by health experts. But neither Osho has ever said this nor is there any research by experts that meditation methods can protect someone from virus infection. Even the body of the Buddha is not saved from virus infection. Whenever viral flu spread in the city, Osho's doctors suggested him not to go to the discourse, which Osho used to listen to. This was the use of social distancing, which is still being recommended by health experts. It would be better to listen to their suggestions.
If you are meditating to avoid the virus, please do not. Nothing will happen to him. Osho's meditation methods are for the same reason he has given - to interview the layers of the mind, to get into the experience of timeless silence, where there is joy. If in this time you have chosen meditation because you were unable to find time in the daily routine and you want to use this time to get more inside than anything else, then very beautiful. If this time seems like a transition period in which there is uncertainty on every floor, and suddenly you realize that life is always like this but in this time of crisis, I can feel it, And it is making a sense that I know real life now - if this is why you are meditating, then very beautiful.
And then it is golden time. This is the time when meditation can descend into every act of our life rather than an hour-long process. There is no time pressure on deadlines for most of us. We can be completely engrossed in every little act. As Osho says - such a broom can be placed on the floor as if building Taj Mahal, food can be made as if someone is singing a song. Not touching the face with the hand can also become a continuous use of reflexes - with the hand raised to touch the face, you suddenly pause in the middle, and in a paused moment it suddenly becomes silent. At this time, when life has to be lived in new ways at many levels, we can see that what we do in everyday ordinary life is so essential, how undeserved, and how much habitually. We can see what are the changes in our personal and social life that we thought were not possible but have come and brought beautiful results - such as sudden withdrawal of pollution from nature.
At this time restlessness will arise, uncertainties also, nervousness, fear also. These are all very human expressions and we all go through them in some quantity every day, but since we do not have time to deal with them, our automatic device suppresses them and they become a disease in our body and mind. Now that there is time, the automatic instruments will loosen up and we will be able to see them more. Those who are talented will be able to see that the feelings that are emerging in me are emerging because they are part of my institution, no situation has caused them.
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